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अरुणा शानबॉग की याद में... / रेणु मिश्रा

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अँधेरा
घना, काला, स्याह अँधेरा
जो कभी वीरान नही होता
ना होता है सुनसान
वहां चीखती हैं अनेक
कलपती साँसों की रुदालियाँ
जो चित्कारती पुकारती
छुप जाना चाहती हैं
उन दरिंदों की स्याह परछाइयों से
जिन्होंने बयालीस साल पहले
उसकी आत्मा का खून कर
उसे उजालों से कर दिया था बेदखल
जो उसे जंजीरों से जकड़,
फेंक आये थे
पीड़ा से भरे अंतहीन काली खोह में
उसकी आत्मा जूझती रही
पल-पल उस काले अतीत से
जिसने उसके उजले भविष्य का
कर दिया था बलात्कार
मन के अँधेरे स्लेट पर से
वो हर संभव,
हर तरीके से मिटाती रही
'बेचारी अरुणा' होने का दाग़
और फिर उस दिन
तिल-तिल सुलगते देह के अँगारे में
धड़कनों के बिगुल ने ऐसा साँस फूंका
कि वो, एक तिनका उजाले का
अपनी अंधी आँखों से गटक
अँधेरे के जकड़बंदियों से
हमेशा के लिए आज़ाद हो गयी
अब
करती है प्रार्थना
हे ईश्वर!
कभी भूल कर भी तुम
"अरुणा शानबॉग" ना बनाना