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प्रेम का प्रमेय / रेणु मिश्रा

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तुम्हे समझने में आसान होगा
हमारे प्रेम का गणित
अगर तुम समझते हो
ज़रा भी संबंधों की ज्यामिति...
चलो सिद्ध करते हैं
प्रेम का प्रमेय!!
मान लो तुम्हारा मेरा प्रेम
वृत्त की परिधि जैसा कुछ है
जिस पर तुम और मैं
चल रहे हैं विपरीत दिशा में
जिससे हम मिल सकें
कभी उनींदी चांदनी रात में
तो कभी
अधखुली अपलक जागती भोर में
कभी मिलें
चिलकते दोपहर के बाद
हौले से बहती
मुस्कुराहटों वाली शाम में
तो कभी मिल सकें
लरजते होठों पर अटकी
शबनमी गुलाबी सुबह में
ऐसे मिल कर बिछड़ने
और बिछड़ कर मिलने से
बची रहेगी
एक दूसरे को बार-बार पाने की ललक
और हमारे बीच महकती
प्रेम की सौंधी गंध
एक ही दिशा में चलने से
हम बन जायेंगे
एक-दूसरे को रौंदते हुए दो बिंदु
बढ़ जाएँगी साथ रहने की मुश्किलें
कभी दबी रह जाएँगी
मेरी सपनीली महत्वकांक्षाएं
या कभी टकरायेंगे
बेहतर साबित होने का दम्भ
साथ साथ चलने में भी
आ जायेगी कई परेशानियां
संवादों की शून्यता में
तुम और मैं
भूल जायेंगे प्रेम की गोलाई को
और बन जायेंगे दो सामानांतर रेखाएं
जो साथ तो चलती हैं
लेकिन उन्हें जोड़ने के लिए
ज़रुरत होती है,
किसी तिर्यक रेखा की
जो दिल-दिमाग जैसे दो बिंदुओं से होकर गुज़रेंगी
और हमारे संबंधों को देखेंगी
आठ नए बनावटी कोणों से
अब तुम ही बताओ
आखिर हमारे इस सीधे-सादे गोल प्रेम में
क्या ज़रुरत है किसी बनावटी टेढ़ेपन की!
नहीं ना...
तो इस तरह सिद्ध हुआ
प्रेम का प्रमेय!!