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नीतिका / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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अक्ष-मालिका नीति-मत, वर्ण-वर्ण विन्यस्त
अक्षर-पुरुषक पद चढ़ओ, सद्भावना प्रशस्त

स्वरवर्ण-वृज्या

- अन्न खेत-खरिहानसँ वनसँ फल दल कन्द
तदपि गमैया वनैया कहय नागरिक मन्द॥1॥
अपन गुणेँ हो मान्यता, ने सम्बन्ध प्रताप
गाय माय छथि विदित जग, किन्तु बड़द नहि बाप॥2॥
अभियानक पहिने कने धर-मुरचा पर ध्यान
गोल कीपरक बल सफल अग्रेसर समधान॥3॥
अमतो आमिल रस भरय, तीतो पटुआ प्रीत
आद-मरिच कड़ओ रुचय, रस गुन डहकन गीत॥4॥
अवगाहन शास्त्रक करिअ तखनहि विद्या स्नात
निशि निद्रा मुद्रित दृगहि जाग्रत उदित प्रभात॥5॥
अहमक चस्मेँ पर अगुन दुन चौगुन बड़ ह्वैछ
अपन दोष गिरि सम कनहु नहि पुनि देखि पड़ैछ।6॥
अप्रिय सत्यहु सुनु सरुचि, प्रिय असत्य मुनु कान
माहुर अधुरहु तजि विहित तीतहु औषध पान॥7॥
असतहु सत संगतिक बल पद उन्नत पहुँचैछ
कीट फूल - दल संग सटि प्रभुहुक शीश चढ़ैछ॥8॥
अस्त्र-शस्त्र वाहन तुरग नर गति तीव्र प्रशस्त
मंदहि चलइछ कामिनी हंस पवन गज मस्त॥9॥

- आगि उगिलि ज्वालामुखी स्वयं मिझाइछ अंत
कुपित दुर्मुखक उचित नहि रोक - टोक, कह संत॥10॥

- इतिआइछ धन-संपदा नहि क्यो जन रहि जाय
पिबि पिबि रस मधुकोषकेँ मधुमाछी उड़ि जाय॥11॥

- ईति-भीति वश दुखी यदि देश प्रजा - परिवार
राजनीति अनरीत थिक, धिक् शासक शतवार॥12॥

- उर उर्वर तनिके विदित क्षमा वृक्ष उपजैछ
पत्र मित्रता, यश कुसुम, पुण्यक सुफल फडै़छ॥13॥

- ऊसर बीज न जमि सकय, खल चित नहि उपदेश
बनय न वक शुक, काक पिक कयनहु यतन अशेष॥14॥

ऋतु वसन्त बिनु नहि पिकक बोल श्रवण मधु घोल
कटु रव कोलाहल कलह नितप्रति काकक टोल॥15॥
ऋतंभरा प्रज्ञा जनिक, वसुन्धरा परिवार
स्वयंवरा श्री - शारदा उभय बसथि उर द्वार॥16॥
ऋषिक वचन, चिन्तन मुनिक, गुरुक सहज उपदेश
श्रुति स्मृति नीति न कय सकय खल उर रंध्र प्रदेश॥17॥

- एक सत्य, शत-शत असत गलइछ छनहि समस्त
उगितहि सूर्यक ज्योति जित नखत असंख्यहु अस्त॥18॥

- ऐल-फैल वासन-वसन घरहि बीच सजि आउ
भ्रमण करी तँ भ्रमहु वश अधिक न साज सजाउ॥19॥

- ओषधि बल जे जन करथि हठि कुपथ्य उपभोग
पानि देखि से आगि मे कूदथि हठि दुर्योंग॥20॥

- औषधि कतबहु तीत कटु, गुरुजन वचन कठोर
व्याधि शरीरक हरय ओ, मनक आधि ई घोर॥21॥


अं - अंग-अंग गहना गुहल रंग-विरंग पटोर
पहिरि दंतुरा कांत चित चढ़ि न सकय दृग कोर॥22॥
अंश एक गुरुसँ पढ़थि दोसर स्वयं गुनाय
तेसर सहपाठीक सङ, चारिम छात्र पढ़ाय॥23॥

अः - अः - उः करइत गुरुजनक वचन टारि जे दैछ
रत्न - हारकेँ भार बुझि बीच धार डुबबैछं।24॥

स्पर्शवर्ण-वृज्या

- कनकपुरी बसि कयल नहि दशाननहु कन दान
दन्त - बद्ध स्वर्णक कयल कर्ण रणहु बिच दान॥25॥

का - काम क्रोध आ लोभ मद मोह अहम् अभिमान
मन - वन घुमइछ हिंस्र - दल साधक गहु अवधान॥26॥
कारी कागो - कोकिलो, उज्जर बगुलो - हंस
कमल - पलासो लाल पुनि, गुण नहि वरनक अंस॥27॥

कि - किछु कय खल नहि बनय भल, छल नहि छनहु छुटैछ
की कहुँ लाबा - दूध पिबि सापक जहर कमैछ?॥28॥

की - की कय सक किछु शत्रु जँ मिलय न कुल बकटेंट
कुड़हरि कटितय काठ की जँ नहि लगितय बेंट?॥29॥

कु - कुपितहुँ साधुक मुख विरुख नहि दुर्वचन उचार
जरितहुँ चानन वितर शुभ सौरभ भरि संसार॥30॥

कू - कूटकपट - पटु साधुहिक ओट स्वार्थ सजबैछ
सूर्य - चन्द्रहिक बिम्ब गहि राहु-केतु पुजबैछ॥31॥

के - केलि-कथा कलि थिक कविक, द्वापर यौद्धिक वृत्ति
त्रेता धर्मकथा तथा कृत अध्यात्म प्रवृत्ति॥32॥
केसरि-केसर भुजग-मणि कृपणक धनक प्रयोग
सती रूप यौवन न पुनि मरनहु हो संयोग॥33॥

कै - कैरव चानक मुख निरख, तकइछ कमलहु भानु
युगल जलज नभगत सहज, भेद रुचिक अनुमान॥34॥

को - कोटि-कोटि भगजोगिनी हरय न राति अन्हार
सूर एक उगितहि छनहि जग भरि जोति पसार॥35॥

कौ - कौरव शत रहितहुँ न पुनि पच पांडवक तुल्य
संख्या बीसोबर वरुक गुण बल अतुल अमूल्य॥36॥

- कंचन जेना अकिंचनक, सिंचन बीजक प्रान
संतक संगति सुजन हित, जनु चकोर चित चान॥37॥

कः - कः कः पुछइछ काक खग के पुनि लोक निरोग
हितभुक् मितभुक् कालभुक् जे जन भोजन भोग॥38॥

- खलक कटूक्तिक ताप हित कि करब चानन लेप
सुजन वचन अछि तखन की करब चाननक लेप?॥39॥
खल बंदन चदन विरुचि, सुजनक चाटो मिष्ट
अहि मुख चुम्बित अग पर चाटो भगतक इष्ट॥40॥

- गौरवमय गुरुजन चुपहि लघुजन करइछ घोल
सोन मौन गहि रहथि पुनि काँसक टन-टन बाल॥41॥
गगन मगन उड़इछ सतत जत स्वच्छद विहग
शुक पंजर बन्धन पड़ल, स्फुट मधु वचन प्रसंग॥42॥
गति डगमग, दृग रक्त, तन कम्प, न रंच विवेक
अरदर कह नहि धैर्य रह, क्रोध सुरा मद एक॥43॥
गात मलिन जलसँ विमल, वचन सत्यसँ शुद्ध
मन उपकारहु निष्कलुष, आत्मा ध्यान विशुद्ध॥44॥
ग्रंथ पंथ पढ़ि लिखि न किछु गुनइछ खल विषदत
सूध दुध पिवितहुँ फणी उद्गिर गरल दुरंत॥45॥
गुणक मान नहि जतय तहँ गुणी न लोक बनैछ
नागा साधु दिगबरक गाम न धोबि बसैछ॥46॥

- घुमि जग उपवन, सुजन-तरु भसि, शुचि रुचि गुन फूल
रस सौरभ संचय करिअ बनि भमरक समतूल॥47॥

- चपलहुसँ बढ़ि चंचला, मृगतृष्णहु सँ तीख
लक्ष्मी मदिरहुसँ मदिर, अहि-जीहहु वढ़ि बीख॥48॥
चातक स्वाती मेघसँ माङल कन दू चारि
तावत भूतल देल भरि बरस निरंतर वारि॥49॥
चान मलिन दिन, रजनि पुनि हरथि नयन मन दाहु
जीवन - संध्या सहचरी धनि विरूपि वयसाहु॥50॥
चित्त थीक भंडार - घर, कूड़ा - कर्कट टारि
शुद्ध करब पहिने तखन, गुन भरि लेब विचारि॥51॥
चित्र-विचित्रहु रंजितहु रूप अनूपहु बंध
अरसिककेँ रुचइछ न जनु भानु - चान दृग अंध॥52॥
चुट्टी सन लघु जन्तु लखि, माछी अछि गर्वेत
हाथी ऊँट अँटैत दृग, तखन स्वरूप सुझैत॥53॥

- छल विधिकेँ जे उचित विधि करितथि भाव अभाव
मरु प्रदेशमे शीतता, मेरु देशमे ताव॥54॥

- जननी - उदरहि जनमि जन ज्ञानी दाता वीर
खानि धातु मनि धन, वितर कीड़े दिवरा भीर॥55॥
जल कज्जल यमुना नहा’ हंस न हो बदरग
गंगाजल डुबकी लगा’ बाग न उज्ज्वल रंग॥56॥
जा धरि नहि ससिगर सगर ता धरि उद्धत धान
गुन दाना भरितहिँ झुकय अपनहि नम्र महान॥57॥
जीवन जाड़ दुहूक बीच अछि समता बड़ि गोट
सुखक दिवस अति छोट पुनि दुखक राति अति मोट॥58॥
जीवन जनरुचि - मत यदि च चैन न उबरय प्रान
जलहु नुकौनहु शुभ सुरुचि मीनक जाल बझान॥59॥
जीवन संचित पुण्य धन जप तप दान समग्र
करय पलहि मे भस्म ई क्रोधक अनल उदग्र॥60॥
जुआरोक धनशरद धन, गनिका नेह अनेर
छाया मेघक छनहिमे जाय बिलाय न देर॥61॥
जेठ जते तबधय तते बरिसय सघन अषाढ़
तपि पूर्वज संचय करय, संतति खर्चय बाढ़॥62॥

- झाँ-बसात बहैछ कत मघा-मेघ भरिआय
किन्तु न स्वातिक बिन्दु बिनु चातक प्यास मेटाय॥63॥

- टरटर करइत बेङ फुलि जलकन पिबइत मस्त
नहि देखय अहि लगहि मुह बओने, करते ग्रस्त॥64॥

- ठका जाथि से टका हित, हित-अनहित नहि बूझ
भोज - भोजने जे भजथि तनिका भजन न सूझ॥65॥

- डाँट-डपटसँ आँट जे वटु से पटु नहि होय
काँटकूस पर सुति न क्यौ चर्म-मर्म संजोय॥66॥

- ढोल-ढाक कतबहु पिटय, मचबय कतवहु घोल
बरिसय मधु - श्रुतिपटु न विनु बँसुरी सुर अनमोल॥67॥

- तदनु क्रिया गुन तनिक हो यदनु स्वभाव जनीक
रंग जामु कारी, पिअर आम, लाल लीचीक॥68॥
तन भूषण थिक रूप, गुणहि रूप केर भव्यता
ज्ञानेँ गुनेँ अनूप, ज्ञान तत्त्व एकात्मता॥69॥
तीख तीर तरुआरि अति, तिख-रुख वचन विशेष
बचय कदाचित अनु तनुक, मन निस्सन नहि शेष॥70॥

- थिक द्विरुक्ति पुनरुक्ति पुनि गुन यदि संग महान
राम-कृष्ण दूइ नाम मिलि रामकृष्ण भगवान॥71॥

- दसक बीच क्यौ धनिक हो, शतक बीच गुणवान
सहस बीच दानी, न पुनि त्यागी कोटिहु जान॥72॥
दरस, परस, गपसप त्रिविध बरजिअ तियक प्रसंग॥73॥
दिनहि तते श्रम करिअ जे निशि करतब नहि शेष
रोप करिअ आषाढ़ यदि अगहन गहन विशेष॥74॥
दुग्गी-तिग्गी के गनय पंजा-छक्का फूसि
जँ एका जनमे रहय राजा-रानी झूसि॥75॥
दुर्गुण वण दुर्गन्ध चित लुबधल माछी ओछ
दूषित दिस पहुैचय, मुदा मधुक मधुप कर खोज॥76॥
दूध - दही - घी देथि जेँ उपजाबथि बन-बाध
बहथि शकट तेँ मान्यता गो - जातिक निर्बाध॥77॥
दूर लगहु दृग - दोष लखि चश्मा दुरुख लगैछ
परदूषण दूरहु सुझय, निज गुन सघन सुझैछ॥78॥

- धनक शुद्धि हो दानसँ, तन सेवासँ शुद्ध
वचन शुद्ध पुनि सत्यसँ, मन त्यागहि परिशुद्ध॥79॥
धातु रतन भल भरल यदि हिम न गिरीश कलंक
गुनगन बिच त्रुटि कन न किछु जनु शशि श्यामल अंग॥80॥

- नदी बाढ़ि, यौवन, दछिन पवन न चिर दिन थीर
लेथु पटाय, खटाय तन, हरसि परसि बुध धीर॥81॥
नव वयसहि रसमय सुतनु, गतवय अरुचि मलान
नव नीरा ताड़ी निषिध होइतहिँ बासि पुरान॥82॥
नाम उपाधि न करय किछु भाग अपन अपनाय
कौड़ीमल घरमे करथि पाक धनेसर राय॥83॥
नारिकेल मुजडोरि वा लोहक तारक बानि
शिथिल होय, नहि सज्जनक वानि कदापि उबानि॥84॥
ने निदाघकेँ जलद जल, ने पावस केँ प्यास
ने शिशिरक दिनमान किछु, जे शशि उषा विलास॥85॥
ने मतिमानक मति खलक दुर्मतिएँ भसिआय
अन्हड़ बहितहुँ कहुँ कतहु मणिक इजोत मिझाय?॥86॥
ने वसन्त उपवन वसय, ने ग्रीषम मरु भूमि
सुखित मनहि मधु-मलय बह, लूह दुखित उर जूमि॥87॥
ने सौजन्यक वन सघन, सरस न प्रेमक धार
क्रोध अनुर्वर मरु - धरा, उपज न शील उदार॥88॥

- पर तिय प्रौढ़ा मातृवत्, युवती बहिनि समान
बाला पुत्रीवत् बुझिअ मातृ जाति सम्मान॥89॥
पर नारी प्रति क्लीव जे पर-दोषक प्रति अंध
पर-निन्दा हित मूक जे मनुज देव अनुबंध॥90॥
परक हानि नहि होय तँ स्वारथ सुपथ विचार
अपन हानि होइतहुँ करथि सन्त परक उपकार॥91॥
पाबय भाग्यक रत्न, कर्म खानि केँ खुनय जे
सुख - पट बुनय सयत्न, श्रमक तन्तु केँ तनय जे॥92॥
पिता धैर्य, माता क्षमा, शान्ति प्रिया सुखसार
सत्य सहोदर, अहिंसा बहिनि, साधु परिवार॥93॥
पुरषार्थी श्रम बल सफल करय न दैव भरोस
नहर काटि पटबय कृषक मेघक दिअय न दोष॥94॥
पोत तुरग गज सचिव लय लड़थु शाह सतरंज
किन्तु पदातिक विना नहि किला सुरक्षा मंच॥95॥
प्रकृति विकृति आहार वश, लोक न रोक कथूक
मलभोजी रट काक कटु पिक रसाल - रस कूक॥96॥
प्रतिकूलोमे मेल पुनि अनुकूलो न मिलैछ
खटमिट्ठी सबतरि चलित, नोनमिट्ठी न रुचैछ॥97॥
प्रलयकंर शंकर विदित, बनला कृष्णो चन्द
श्यामहु व्रज मे लाल पुनि सूर लोक मे अन्ध॥98॥
प्रियगर बाजथि बात जे से छथि स्वयं-अमोल
किनथि सुदुर्लभ मन सभक विनु खर्चहु मधु बोल॥99॥

- फड़कय वामहु दहिन पुनि तिय पुरुषक अनुसार
शुभे अशुभ अशुभहु शुभे फल हो वस्तु अधार॥100॥

- बौक वधिर आन्हर जनम वरु विधि लीखथु रेख
फूसि वचन, निन्दा श्रवन, पर तिय छवि न परेख॥101॥
बधन पवनक करिअ यदि नभमे विरचिअ रध
सलिल भरिअ मरु मे तखन खल सँ निभ संबंध॥102॥
भरल - पुरल उज्ज्वल शशी राका राहु ग्रसैछ
खीन मलिन तनु वंक विधु ईश शीश बसबैछ॥103॥
भानु दिनावधि, चान पुनि निशि भरि करथि इजोत
गुरुजन अह-निश लघुजनक हित नहि हरथि इरोत॥104॥

- मणिहिक मोल घटैछ यदि जौहरीक नहि हाथ
पुनि यदि वानर कर पकड़ फुटइछ पाथर माथ॥105॥
माथ साटि केसर कुकुर वरु केसरि तत्काल
मत्त करी क भिडं़तमे अंत हुनक की हाल॥106॥
मुह दूसय जे जन तकर पहिनहि हो मुख भंग
जरबय जे इन्धन स्वयं जरि जाइछ अनुषंग॥107॥

अन्तःस्थ-वर्ण व्ज्या

- यदि उदारसँ हानि किछु सकिअ न तनिका टारि
घर जारय बरु आगि पुनि लगले तकर पुछारि॥108॥

- रवि मे ताप प्रकाश दुहु, शशि मे ज्योति कलंक
दीप जोति-कारिख दुरुख, अवगुन गुनहिक अंक॥109॥
रहय भाव हृदयक जेहन, तेहने वचन उचार
प्रतिबिंबित अपनहि करय मुह छवि दर्पण द्वार॥110॥
रोटी टुकड़ी वश, छड़ी विवश, नाचि कत नाच
दाँत निपोड़थि तमासे बनि नर वानर साँच॥111॥
रौद घमाबय देहकेँ, आगि जराबय गेह
देह गेह ओ नेह केँ छनहि कोह कर खेह॥112॥

- लहरि गनिअ सिन्धुक, कुसुम लोढ़िअ गगनक गाछ
उपजाबिअ मरु पाथरो धरिअ दुर्जनक पाछ॥113॥
लड़इछ भेड़ - बटेर कत शुक - सारिओ पढ़ैछ
लिखथि नित्य जे दैनिकी केहन बितल दिन-राति
जीवन ऋषि वा पशुक तुल से उन्नति-पथ जाथि॥115॥
लेथु सुजन परिमित स्व - हित, देथि अमित प्रतिदान
चरथि धेनु तृन - घास वन, घी दधि दूध पन्हान॥116॥
लोभी धनसँ, रूप सँ कामी, भयसँ दुष्ट
सुजन शील सँ, प्रेम सँ भगवानो धरि तुष्ट॥117॥

- वकक ध्यान, सिंहक क्रमण, कुकुरक सेवा निम्न
चेष्टा कागक, गर्दभक भार-सिखिअ अविखिन्न॥118॥
वरु कुलजा कुबजा रहओ, कुलटा कलावती न
अमृता तीतो सेविअत, मीठो माहुर हीन॥119॥
विचलित दाँत समान ज ेपीडक अपनहु लोक
जड़ि उपाड़ि फेकिअ झटिति तखनहि मिटइछ शोक॥120॥
व्यसनी संदेही अलस यदि चाहय धन-मान
पंगु लुल्ह हिम शृंग चढ़ि बान्हय अवस मचान॥121॥
व्यक्तिक दुहु विधि रिपु विदित अंतरंग बहिरंग
प्रथम वर्ग जितनहि सहज अपर वर्गहुक भग॥122॥
व्यक्ति जाति हित, जाति पुनि तजिअ समाजक हेतु
हेय समाजहु देश - हित, देश समष्टिक केतु॥123॥

उष्मवर्ण-व्ज्या

- शालग्राम शिला अगढ़ कारी कुछवि कठोर
दैवी गुण सँ पूजिअत, न पुनि मोम मृदु गोर॥124॥
शिशु वसन्त चढ़ि शिशिर शिर दु्रम दल तोड़ल बेस
कान्ह चढ़ाबी बालै यदि नोचय निश्चय केश॥125॥
शील स्वभावक आवरण यदि अकिंचनहु गेह
स्वर्ण आभारण भार थिक अत जे साजिअ देह॥126॥
शुद्ध - विशुद्धहु मुनि-वचन बल नहि पशु-पूजैत
दितय न यदि दधि-दूध - धृत धेनु न धन्य बनैत॥127॥
शोचनीय धनहीन नहि, धनिक कृपन तनि सोच
चिन्तनीय नहि तिय सलज, रूपहि अलज अरोच॥128॥

- षण्मुख गजमुख पंचमुख लम्बोदर परिवार
सती अन्नपूर्णा बलेँ भरइछ उदर उदार॥129॥

- सती नारि सजला नदी पुष्पवती - व्रततीक
अर्थवती वाणीक द्युति पुत्रवती युवतीक॥130॥
समय बिताय करैछ किछु व्यर्थ तनिक कृति ह्वैछ
खेत पानि बहि जाय पुनि की लय आरि बन्हैछ॥131॥
समय बितय पढ़ि - लिखि बुधक कला ज्ञान - विज्ञान
रगड़ि - झगड़ि दुर्व्यसन पड़ि मूर्खक असल सुतान॥132॥
सार शरीरक स्वस्थता, शक्ति तकर थिक सत्त्व
कर्मठ जीवन फल तकर, यश जीवनहुक तत्त्व॥133॥
सिंधु कृपन दुहु अंतरहि रतन संपदा झाँपि
तृन कंथा देखबथि प्रगट कुहरि - घहरि तन झाँपि॥134॥
सुजनक घर दारिद उमड़, दुर्जन सम्पति वास
जनपथ जमय न श्याम तृन, निर्जन हरिअर घास॥135॥
सुजन शरद दुहु दर्शनेँ नयन नलिन विकसैछ
खल हेमन्त दुरन्त जत मान सरोज गलैछ॥136॥
सूत न जे रथ - पथ अबुझ, सूत न टुटय बुनैत
सुत की पितु - वचन न सुनय, सुतब कि नित सपनैत॥137॥
स्थान समय साधन स्वबल अनुभव मन उत्साह
कर्म नित्य नियमित कृती धु्रव संपदा प्रवाह॥138॥
स्वाती घन जल दिव्य कन स्वादय चातक धीर
पिबय न किन्नहु भूतलक कूप पोखरिक नीर॥139॥
स्वकुल तुच्छ रहितहुँ यदि च संग अंग छँटि जाय
छाँटल चाउर छिटि कतहु अन्न न क्यौ उपजाय॥140॥

- हरि हर एकहि कृति प्रकृति प्रत्यय वसहि अनेक
बदरंगहु हिम-अंगजा यमुन गंग मिलि एक॥141॥
हानि हाय कतबहु सुजन, तजथि न शील - स्वभाव
कतबहु औँटल जाय जल, छुटय न शीतल भाव॥142॥

क्ष - क्षमा कवच पहिरिअ सतत अन्तर शत्रु विरुद्ध
जय पाइअ बिनु आयुधहु दुर्जय जीवन - युद्ध॥143॥

त्र - त्रयी त्रिगुण देवयत्री लोक काल सब तीन
अंत त्रिवेणी जल सकल आत्म - सिन्धु मे लीन॥144॥

ज्ञ - ज्ञान बिना नर वानरे स्वर विनु व्यंजन मूक
शक्ति रहित शिव शव, न पुनि बिनु वसन्त पिक कूक॥145॥
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अविनश्वर स्वर व्यंजनहि व्यंजित रंजित सृष्टि
अक्ष अक्षरहि नीतिका ग्रथित गहओ शुभ दृष्टि
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