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आतंक / सीत मिश्रा
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मैं आतंकित हूं उस स्नेह से
जो बेवजह मुझपर बरसने लगता है
उस नफरत से भी
जो मेरे भोजन में चली आती है
उस ईश्वर से
जो खुद को स्थापित करने की चाह में
इंसानियत को झुलसा डालता है
उस भाषा से भी
जो अपना विस्तार
सबको कुचले जाने में समझती है
उस रामायण से भी
जो सीता को उसके हक से
वंचित कर देती है
उस कुरान से भी
जो पुरुषों को चार शादियों की इजाजत देता है
उस परम्परा से भी
जो पुरुषों के भरोसे
दुनिया चलाने का दावा करती है
और खत्म कर देती है
कोख में बेटियां
उस प्रेम से भी
जो सीमा रेखा के पार
जाने की इजाजत नहीं देता
क्योंकि...
बंधन में प्रेम नहीं, सेक्स होता है