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कल्पना ही दहलीज़ पर / निदा नवाज़

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मैं जब भी वहाँ जाता हूँ
उसी कोने वाली मेज़ के
एक तरफ़ बैठता हूँ
और ताकता हूँ
अपने सामने की ख़ाली कुर्सी को
जिस पर कभी
तुम बैठती थी
ज़ाफ़रानी यादों की कलियाँ
खिल उठती हैं
कल्पना की दहलीज़ पर
तुम्हारे पाँव की आहट
सुनाई देती है
मेरे सामने तुम्हारी
दो ज़मुर्दी आँखें
उभरती हैं
मैं उनके इन्द्रजाल में
खो जाता हूँ
धीरे-धीरे तुम्हारा
पूजा की रूपहली थाली जैसा
चेहरा उभरता है
और माथे का तिलक
जैसे आरती का दीया
तुम अपना हाथ
मेरे हाथ पर रखती हो
लोहे को छूता है पारस
“हरमुख-पहाड़ी” से
पार्वती का आशीर्वाद लिए
कोई हवा का झोंका आकर
कमल की दो पत्तियों को
छेड़ता है
और तुम्हारे दो कोमल होंठों से
सरगोशियाँ फूटती हैं
बातों-बातों में
तुम रूठ जाती हो
कल्पना की दहलीज़ पर
मैं तुम्हारे जाने की
आहट सुनता हूँ
मैं चौंक जाता हूँ
अपने सामने की
खाली कुर्सी को ताकता हूँ
आँखों के आकाश से
आँसू के तारे
टप...टप...गिरते हैं
और मैं
मेज़ पर बिखरी
हर बूंद के दर्पण में
अकेला रहता हूँ
एकांत.