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शून्यकाल की मुंडेर पर / निदा नवाज़
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शून्यकाल की उसी मुंडेर पर
आज फिर वह
हाँफते घोड़े सा
घायल होकर बैठ गया है
कुछ क्षण के लिए
और कर रहा है ठंडी
अवचेतना ग्रीष्म की अग्नि
अपने आंसुओं से
बचपन से उठा रहा है
अपने कंधे पर
बाँझ रिश्तों का बोझ
एक बंधुआ मज़दूर की तरह
और कभी-कभी हंसता भी है
अपनी कायरता पर
एक फीकी सी हंसी.