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कंकाल आदमी / निदा नवाज़

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क्या तुम्हें भी कभी
अपने भीतर
पत्तों के झरने की
आवाज़ें सुनाई देती हैं?

क्या तुमने भी कभी
कबूतर की लाल होती
आँखों के सागर में
ख़ुशी-ख़ुशी अपनी नाव को
डुबो दिया है?

क्या तुम्हें भी कभी
अपने भीतर
अपने रेवड़ से
बिछुड़ने वाले
मेमने की अंतिम चीख़
सुनाई देती है?

क्या तुमने भी कभी
रेत होती हुई आँखों के पन्नों पर
उभरने वाली अंतिम इबारत को
पढ़ा है?

क्या तुम्हारे हात्थों से भी
अधिकतर
फिसल जाती हैं मछलियाँ
और तुम देखते रहते हो
पानी पर लहरों से लिखे
प्रश्न को?

क्या तुमने भी कभी
मरुस्थल की लपेट में आने वाले
पेड़ की
अंतिम हरियाली की
वसीयत देखि है?

और क्या तुम्हें भी कभी
अपने विचारों के धरातल पर
अनिवार्य लगती है
एक क्रान्ति
पथरीले खेत की मुंडेर पर खड़े
उस कंकाल आदमी के लिए
जो अभी तक चूस रहा है
दुखों की दरांती से कटा
अपना अंगूठा?

यदि तुम्हारे पास
ऐसा कोई अनुभव नहीं
तो समझना
कि जीवन से तुम्हारा रिश्ता
टूट चुका है
और तुम क़ब्रिस्तान के
वह पेड़ बन चुके हो
जिसकी छाँव में
केवल मुर्दे दफनाए जाते हैं.