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यथार्थ की धरा पर / निदा नवाज़

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(एक मज़दूरन को देख कर)

उसका चेहरा नहीं था कोमल फूल
बल्कि था आग की बठी में
तप रहा लाल लोहा
जिस पर था लिखा
एक अनाम दहकता विद्रोह.
उस के चेहरे पर रिस आयी
पसीने की बूंदें
नहीं थी किसी फूल की पत्ती पर
चमकती हुई ओस
बल्कि थीं श्रम की आंच से
उभल आयी सीसे की लहरें
उसकी आँखें नहीं थीं स्वप्निल
बल्कि थीं
एक तख्ती की तरह सपार्ट
जिन पर जीवन की इबारतें
अनिश्चितता की भाषा में नहीं
स्पष्ट तौर पर लिखी हुई थीं.
उसके बाल नहीं थे मुलाइम
बल्कि थे उलझे हुए
उसके ही जीवन की तरह
जिन से नही बुना जा सकता था
कोई काल्पनिक स्वप्न

लेकिन उन में मौजूद थे
सभी खुश-रंग धागे
यथार्थ बुनने के लिए.
उसके मैले कुचेले ब्लाउज़ में से
न ही झाँकतीं थीं
संगमरमर की दो मेहराबें
और न ही दो पक्के हुए अनार
बल्कि थीं वे अमृत धाराएं
जिनको पी कर बनते हैं क्रांतिवीर.
उसके हाथ नहीं थे दूधिया
बल्कि थे मेकानिकी
सीमेंट और रोड़ी को मिलाने वाले
जीवन को एक आधार बख्शने वाले.
और उसके पाँव में
नहीं थी कोई पायल
बल्कि थे ज़ंग लगे लोहे के
दो गोल टुकड़े
जैसे कोई अफ़्रीकी ग़ुलाम
जंजीरें तोड़ कर भाग आया था
मगर वह भाग नहीं रही थी
बल्कि वह यथार्थ की धरा पर
जीवन-साम्राज्य के समक्ष खड़ी थी
उसकी लोहित-आँखों में
अपनी ज्वालामुखी-आँखें डाल कर.