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व्यथा समिधा बनी है / विमल राजस्थानी

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हृदय की बीन के ये तार कुछ यों झनझनाते हैं
कुँआरी नींद को सपने सुहागिन कर न पाते हैं

सिसकते प्रेम के सिर पर बँधा है पीर का सेहरा
न आँसू पी सके मन; आँख पर आदर्श का पहरा
किसी की बेवफाई से हुई मन की सगाई है
लिये आँसू हजारों इश्क की बारात आयी है

बजाते श्याम घन शहनाइयाँ दृग-ब्याह-मंडप में
महकती याद के चुम्बन सुमंगल गान गाते हैं

उदासी की हथेली पर रचायी टीस ने मेंहँदी
व्यथा समिधा बनी है, सुलगती है विरह की बेदी
कराहे क्रूर नियमों से बिंधी छवि-छंद की छाती
विभाशित प्राण के मंगल कलश पुर दर्द की बाती

स्वयंवर वर्जना के डमरुओं से गूँज जाता है
मिलन दुर्लभ, हुआ क्या शिव-धनुष शत टूट जाते हैं

-14.12.1974