Last modified on 19 फ़रवरी 2016, at 11:38

मत निहारो कि दरपन पिघल जायेगा / विमल राजस्थानी

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 19 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

काँच को रूप की आँच लग जायगी
मत निहारो कि दरपन पिघल जायगा
कुन्तलों से न सावन बिखेरा करो
यह बहारों का मौसम बदल जायगा

यूँ ही साँसों से साँसें मिलाती रहो
आँख में आँख डाले पिलाती रहो
पालने पर पलक के झुलाती रहो
हुस्न के इस नशे को जिलाती रहो
वर्ना आ जायगा होश बेहोश को
लड़खड़ाता ये आलम सँभल जायगा

स्याह नागिन-सी चोटी का गल-हार है
रस कलश युग्म प्राणों का आधार है
आँजना रेख काजल की बेकार है
यह नजर तो यूँ ही तीर-तलवार है
तिरछे-तिरछे न मुड़-मुड़ के ताका करो
मुँह को आया कलेजा फिसल जायगा

हँस के, रह-रह के यूँ लो न अँगड़ाइयाँ
टूट कर ये सितारे बिखर जायँगे
चाँद को बदलियों से न बाहर करो
इन बहारों के तेवर सँवर जायँगे
ये नियम कायदे सब रहेंगे धरे
दिल ही तो है, किसी दिन मचल जायगा