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शिशिर खण्ड / गेना / अमरेन्द्र

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पूस करी केॅ पार निगोड़ा आबी गेलै माघ
सब ढुकलोॅ छै घर मेँ; जेना, ओसरै रहेॅ बाघ
हूकै छै की रँ नी होॅ-होॅ ठंडा बहै बयार
दलकै छै बोरसो के आगिन आरो खड़ा मनार
केन्होॅ कुहासोॅ बिछलोॅ छै-पर्वत सेँ लै केॅ खेत
की कम्बल ओढ़ी सुतलोॅ छै पर्वत-भूमि अचेत
उजरोॅ-उजरोॅ छिकै कुहासोॅ खाली हेन्हैं कहाय लेॅ
आग लगैनें छै देहोॅ सेँ धरतीं जान बचाय ल
हेनोॅ हानी केॅ मारलेॅ छै नी पछुवा नेँ लात
ठिठुरी केॅ अकड़ी गेलोॅ छै गाछ, गाछ रोॅ पात
सुन्नोॅ-सुन्नोॅ लागै छै केहनोॅ नी खेत-बैहार
गल्ली-कुच्ची-चौबटिया सब मरघट रोॅ संसार
हेन्हे कन-कन हवा चलै छै, छूवी लै जों देह
पलक मारथैं टूटी जाय धरती सेँ ओकरोॅ नेह
लोग कहै छै, ई जन्मोॅ मेँ नै देखलौ है जाड़
दलकी केॅ देहोॅ सेँ बाहर निकली जाय छै हाड़
एक अकेलोॅ हवा चलै छै-उमतैलोॅ साँढ़ोॅ रँ
लागै छै बौंसी रांढ़ोॅ के हाथ रहेॅ नाँढ़ोॅ रँ
जाड़ोॅ के भय सेँ रौदा भी होलै अन्तरध्यान
हुलकै छै सरंगोॅ रोॅ पीछू सेँ डरलोॅ दिनमान
सोचै छै सूरज-निकली केॅ कौनें गँमाबेॅ जान
मेघोॅ रोॅ बिल मेँ मूसोॅ रँ ढुकलोॅ छै भगवान
बर्फो सेँ जादा कनकनोॅ पछूवा बहै छै राड़
जमलोॅ जाय छै लहु देह रोॅ, गल्लोॅ जाय छै हाड़
गेना नेँ बोरसी के आगिन खोरनी सेँ उसकैलकै
पझलोॅ-पझलोॅ तावोॅ मेँ थोड़ोॅ -टा जान फुँकलकै
सर्दी के मारे तेँ ओकरोॅ जान निकललोॅ जाय छै
लौटी आबै प्राण देह मेँ फेरू चललोॅ जाय छै
बोरसी केॅ गोदी मेँ लै केॅ गेना कस्सी लेलकै
माय रोॅ सुख जों सीना मेँ बेटा केॅ कस्सी पैलकै
ज्यों लोगोॅ रोॅ नजरीं सेँ बेटा केॅ माय छिपाबै
गेना बोरसी केॅ पछुवा रोॅ डर सेँ होन्हैं नुकाबै
लेकिन हेनोॅ लहर हवा रोॅ उठलै; ताव पझैलै
गेना केॅ लगलै, गोदी रोॅ बच्चा जेना नसैलै
देखी केॅ पझलोॅ तावोॅ केॅ ठण्डौं करै छै जोर
किटकिट दाँतोॅ के साथे मेँ पटपट करै छै ठोर
रक्खी केॅ बोरसी एक दिश मेँ थरथर करतेॅ गेना
लेलकै आपनोॅ गेनरा, छिनमान ओकरे जिनगी जेना
ओढ़ी लेलकै ओकरा, सौंसे देह समेटी लेलकै
आरो ठेना के भीतरी में मूड़ी गोती लेलकै
तैय्यो दलकै छै गेना, की गेनरा ही दलकै छै
लागै छै ओढ़ना के भीतरी बच्चा ही चमकै छै
बहुत देर नै रेॅहेॅ पारलै गेनरा देलकै फेकी
गेना केॅ मुश्किल लागै छै जान बचाना अबकी
हिन्नेॅ-हुन्नेॅ देखी केॅ कानोॅ पर बीड़ी रखलोॅ
सुलगैलकै ढिबरी मेँ, पैहलें सेँ ही आधोॅ जरलोॅ
पीयै छै, पीवी केॅ हाथोॅ केॅ ठनकाबै लेली
मुट्ठी मेँ मूनी केॅ रक्खै छै गरमाबै लेली
लेकिन तीन फूँक रोॅ बादे बीड़ियो गेलै ओराय
सोचै गेना, ‘देह गरमाबैेेेेेेेेेेेेे केरोॅ कोॅन उपाय’
रगड़ै छै गोड़ोॅ रोॅ तलवा, कभी हाथ रगड़ै छै
जान लेबय्या जाड़ा सेँ जानोॅ लेॅ ऊ झगड़ै छै
साहस बान्ही घर सेँ भेलै बाहर केन्हौं गेना
डरलोॅ-डरलोॅ दोषी बुतरू मास्टर लुग जाय जेना
औसरा सेँ निकली केॅ बाहर पिछुवाड़ी तक गेलै
ई बीचोॅ मेँ कत्तेॅ दाफी बरफ-हिमालय भेलै
तोड़ी लेलकै गाछ-बिरिछ रोॅ ठनकोॅ-टनकोॅठार
रखलेॅ छै झुकलोॅ कान्हा पर निसुवाड़ी रोॅ भार
झब-झब आबी बाहर रोॅ बोरसी मेँ बोझी देलकै
फेरू ताखा रोॅ ढिबरी लानी केॅ आग नेसलकै
सुलगी उठलै देखथैं-देखथैं लहकी उठलै ठार
खन-खन पत्ता निसुवाड़ी रोॅ आग करै अम्बार
लपट उठै छै आगिन रोॅ, पछुवा सेँ हिलै-डुलै छै
जन्नेॅ जाय छै आग, गेना रोॅ हुन्नै गला चलै छै
लागै छै झूमी-झूमी केॅ बीन बजैतेॅ रेॅहेॅ
लपटोॅ रोॅ नागिन केॅ गेना जिना नचैतेॅ रेॅहेॅ
धाव लगै छै देहोॅ सेँ तेॅ हटकी-हटकी जाय छै
‘सोझे लपट उठी केॅ नै तेॅ भटकी-भटकी जाय छै’
बैठलोॅ, उठलै; धोती रोॅ फेंटा केॅ कस्सी लेलकै
आरो लपटोॅ रोॅ ऊपर सेँ दू-तीन कूद लगैलकै
चलतेॅ रहलै खेल हेन्हैं केॅ ताव पझैलै जेहनै
बोरसी लुग मेँ कुकुड़याय केॅ बैठी रहलै तेहनै
रात खसी रहलोॅ छै आबेॅ, चिकरै गीदड़-सियार
गूंजै छै ओकरोॅ कानै सेँ नद्दी, खेत, बैहार
सौनोॅ के बोहोॅ रँ होॅ-हॉे कनकन बहै बयार
घर मेँ दलकै छै गेना; माँदी मेँ गीदड़-सियार
जागी रहलोॅ छै दोनों इक चिकरी केॅ इक चुप छै
दोनों रोॅ बीचोॅ मेँ खाली रात अन्हरिया घुप छै
कानै छै कुत्ता कोन्टा मेँ -विष-विष हवा ठहार
मोॅन बटारै लेॅ गेना देवोॅ केॅ करै पुकार

दू दिन के बाद कहीं उगलै जाय धूप;

सरँगोॅ रोॅ कोठी मेँ मुन्हन सुरूजोॅ रोॅ
खोली केॅ किरनोॅ रोॅ धान केॅ ओसाबै छै
आँगन-दुआरी पर भरी-भरी सूप

दू दिन के बाद कहीं उगलै जाय धूप।

किलकै छै दुनियाँ ही जेना कि
चिलका कोय किलकै छै अनचोके सोरी घोॅर
साठी रोॅ चटकन सेँ, खलखल रँ रूप

दू दिन के बाद कहीं उगलै जाय धूप।

हाँसै छै खलखल की गेंदा रोॅ फूल!

जेना कि डेढ़िया रोॅ नीचेॅ मेँ गुलदाउदी
धारी मेँ सजलोॅ ठठाबै छै अनपट्टोॅ
मोहै छै; जेना, कोय बचपन रोॅ भूल

हाँसै छै खलखल की गेंदा रोॅ फूल!

रौदें जे छुलकै तेॅ की सुरुजमुक्खी भी
लाज-बीज छोड़ी केॅ देह देलकै खोली केॅ
फुटलोॅ जुआनी छै छोड़ी केॅ कूल

हाँसै छै खलखल की गेंदा रोॅ फूल!

भोरे-भोरे ओसोॅ सेँ लोॅत-पात झपलैलोॅ!

ओझरैलोॅ, शरमैलोॅ, भारी देह, अलसैलोॅ
कद्दू के लोॅत छै पसरलोॅ दीवारी पर
खोपा मेँ रातके लगैलोॅ फूल-कुम्हलैलोॅ

भोरे-भोर ओसोॅ सेँ लोॅत-पात झपलैलोॅ!

ढकमोरलोॅ ठारी रोॅ बीचोॅ मेँ कत्तेॅ नी
रौदी दिश चोंच करी कचबचिया चहकै छै
माथा पर मोती लै दुबड़ी छै भरमैलोॅ

भोरे-भोर ओसोॅ सेँ लोॅत-पात झपलैलोॅ!

भुटकुरलोॅ बुतरू सब देहरी पर बैठलोॅ छै;

बान्ही केॅ गाँती कोय उछलै छै ऐंगना मेँ
आरो कोय सटलोॅ दीवारी सेँ खाड़ोॅ छै
तापै लेॅ रौद जोरें बिरनी रँ टुटलोॅ छै

भुटकुरलोॅ बुतरू सब देहरी पर बैठलोॅ छै।

रौदी सेँ बुतरू-मूँ सोना रँ चमकै छै
की बुतरू-मूँ छूवी केॅ चमकै छै सोने ठो
ऐंगना मेँ बैठै लेॅ टुनटुनमौ रुसलोॅ छै

भुटकुरलोॅ बुतरू सब देहरी पर बैठलोॅ छै।

गेना भी बैठलोॅ छै ठेहुना मेँ मूँ गोती।

उसुम-उसुम रौद गिरी रहलोॅ छै धौना पर
फेरू ऊ धौनोॅ सेँ पीठी तांय टघरै छै
नढ़िया देह, कमरोॅ सेँ सटलोॅ छै बस धोती

गेना भी बैठलोॅ छै ठेहुना मेँ मूँ गोती।

सोचै छै मने-मन, ‘बल्हौं छी बौंसी मेँ
मरला पर फाँक भरी कपड़ी तेॅ नै मिलतोॅ
कानवो नै करतै कोय एक झुनिया माय रोती,

गेना भी बैठलोॅ छै ठेहुना मेँ मूँ गोती।
सोंचे छै मने-मन, ”की होतै झुनियाँ के?

चूल केन्होॅ लगै छै बगरो रोॅ खोता रँ
इक ठोप्पोॅ तेलोॅ केॅ जानबो करै छै की
मूँ केन्होॅ लागै छै कुम्हलैलोॅ नुनियाँ के’

सोचै छै मने-मन की होतै झुनियाँ के?

”दू दिन तेॅ होले छै’ बाप मरी गेलोॅ छै
रस्ता कोय देखी नै शरणोॅ मेँ ऐलोॅ छै
दुखियैं दुख जानै, भरोसोॅ की दुनियाँ के“

सोचै छै मने-मन की होतै झुनियाँ के?

”दुख आबै, गुन मारै, बड़ोॅ-बड़ोॅ गुनियाँ के।

की करेॅ पारै छी दूनू लेॅ सोचै छी
चिन्ता मेँ देह कभी, चूल कभी नोचै छी
दुख तेॅ लहरनी ही लागै छै लौनियाँ के

दुख आबै, गुन मारै बड़ोॅ-बड़ोॅ गुनियाँ के।

दैवोॅ के चक्र केन्होॅ घूमै छै हन-हन-हन
रूय्ये रँ धूनै छै सब्भे केॅ धुनकी सेँ
के जानेॅ रीत बड़ी अजगुत छै धुनियाँ के

दुख आबै, गुन मारै बड़ोॅ-बड़ोॅ गुनियाँ के।

”तहियो की लोग थकी-हारी केॅ बैठलोॅ छै;

जेठोॅ मेँ रौद सहै, पूसोॅ रोॅ पल्लौ तक
अन्धड़ बतासोॅ, बिन्डोबोॅ सेँ झगड़ै मेँ
सुखलोॅ आमोॅ के ही तख्तै रँ ऐंठलो छै

तहियो की लोग थकी-हारी केॅ बैठलोॅ छै।

लोगें जों चाहेॅ तेॅ धरती केॅ सरंगोॅ पर
सरँगोॅ केॅ धरती पर लानी केॅ रक्खी देॅ
लोगे नी दुनियाँ केॅ बदलै मेँ जुटलोॅ छै

तहियो की लोग थकी-हारी केॅ बैठलोॅ छै।

”हमरी ई किस्मत बदलतै नै केना केॅ ;

लौटतै भाग । मनोॅ से एड़िया रगड़ला पर
पायिो भी लोटै छै भुय्याँ पर मछली रँ
उल्टै छै, पल्टै छै-छलमल छल जेना केॅ

हमरो ई किस्मत बदलतै नै केना केॅ।

असकल्ले रैथियै सेॅ बात छेलै आरो कुछ
आबेॅ तेॅ दू-दू परानी छै हमरोॅ साथ
लान्है लेॅ लागतै सुख पकड़ी केॅ गेना केॅ

हमरो ई किस्मत बदलतै नै केना केॅ।“

आँखी मेँ शहरोॅ के शान-शौक नाँचै छै।

देखै छै-सड़कोॅ पर ठेला चलाबै छी
दू मोटिया ढोला पर दू टाका पाबै छी
सोची केॅ हिरदय रोॅ हिरना कुलाँचै छै

आँखी मेँ शहरोॅ के शान-शौक नाँचै छै।

मोटिया उठैतै जे, ठेला चलैतै जे
देखै छै धौनोॅ कि बोझोॅ लायक छै की नै
कुल्होॅ-कलैयो भी झोली केॅ जाँचै छै

आँखी मेँ शहरोॅ के शान-शौक नाँचै छै।
सपन्है मेँ गेना नी एत्तेॅ अघैलोॅ छै
भुल्लै-गरीबी मेँ कत्तेॅ टौव्वैलोॅ छै
धौना पर दूधोॅ मेँ बरकैलोॅ रौद गिरै
जेना मधुमक्खी रोॅ छत्ता सेँ मोॅद गिरै
झर-झर-झर, उसुम-उसुम रौद अभी बरसै छै
गदगद मोॅन गेना रीॅ; गेंदै रँ हरसै छै।