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नगर खण्ड / गेना / अमरेन्द्र

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”रेशम रँ चिकनोॅ छै की सड़के, गलियो भी
बोलै छै बड़के नै, टाँय-टाँय निबोलियो भी
सजलोॅ चौबटिया छै -मीना बाजारे रँ
चमकै छै सौसें ठो शहर केन्होॅ पारे रँ
छूतेॅ आकासोॅ केॅ उच्चोॅ हवेली छै

साजोॅ मेँ हेने; कोय दुल्हन नवेली छै
लोटकी की रोशनी रोॅ लटकै छै ठामे-ठाम
के छै? लगाबेॅ जे-की छै ई सबके दाम
लागै छै टूटी आकासे ही गिरलोॅ छै
धरती पर जेकरा सेँ तारा बिखरलो छै
की जरै! की बूतै! छोटका सब झकझक रँ
गुजगुज अन्हरिया मेँ भगजोगनी भकभक रँ।

”टमटम छै, रिक्सा छै आरो छै रेलो भी
सिनमा भी, थेटर भी, जादू के खेलो भी
सरंगोॅ के परियो सेँ सुन्नर सब मौगी छै
पीछू सेँ लागलोॅ कुछ जट्टा बिन जोगी छै।

”की रँ लहरैलोॅ सब चूलोॅ केॅ चल्लोॅ छै
गठले नै; जेकरोॅ जुआनी भी ढल्लोॅ छै
देखी केॅ गेना कुछ ओझरैलै, शरमैलै
सोचै छै-मौगी की शहरोॅ रोॅ पगलैलै।“

धारी मेँ सजलोॅ छै सौ-सौ दूकाने नै
साहू रोॅ, सेठोॅ रोॅ उच्चोॅ मकाने नै
ठामेठाम शीशा रोॅ बक्सा मेँ मूरत छै
सच्चो सेँ सुन्नर, की देखै मेँ सूरत छै!
एक्के दूकानी मेँ भीड़ केन्होॅ मेला रँ
लागै सँकराती मेँ बौंसी रोॅ खेला रँ
हदहद करै छै लोग; आबै छै, जाबै छै,
अपना केॅ गेना अकेलोॅ पर पाबै छै।

दू कोस सेँ झटकी केॅ चली केॅ ऐलोॅ छै
माथा पर कसकॅलोॅ मोटरी उठैलोॅ छै
इक-इक नस देहोॅ रोॅ बाहर दिखाबै छै
बोझोॅ छै हेनोॅ कि गोड़ थरथराबै छै
घामोॅ सें लथपथ छै देह, चुवै मेहे रँ
धुरदा सेँ सनलोॅ देह, देह लागै देहे रँ
धौंकनी रँ साँस चलै, मुँह तमतमैलोॅ छै
दू कोस सेँ झटकी केॅ चली केॅ ऐलोॅ छै
सामन्हैं मेँ सेठ विरिजवासी-दुकानोॅ मेँ
रखना छै नीचेॅ, कुछ ऊपर दलानोॅ मेँ
रक्खी केॅ, टाका लै चललै; मन चूर-चूर
गोड़ गिरै जै ठां, मन ओकरा सेँ दूर-दूर
खोली मेँ आबी केॅ गिरलै चित्त, बेसुध होय
गिरै छै गाछी सेँ कटलोॅ ठार जेना कोय
देहो डोलाबै के शक्ति नै बचलोॅ छै
गिरलोॅ छै जेना देह, होनै केॅ गिरलोॅ छै
खोली मेँ गेना छै आरो अन्हरिया छै
आँखोॅ मेँ रात गड़ै; देहोॅ मेँ बोरिया छै।

चाहै परकाश करौं, घोॅड़ मतुर चूर-चूर
मन चाहै उठै लेॅ देहे पर दूर-दूर
थकलोॅ मोॅन, चुरलोॅ देह, भुखलोॅ अटट्ट छै
गिरलोॅ छै गेना चित्त, किंछा सब पट्ट छै।

हेनै केॅ थकलोॅ रोज गिरै छै खोली मेँ
जेनाकि ओकरे रँ ओकरे ही टोली मेँ।

टोली रोॅ लोगोॅ केॅ देखी केॅ हहरै छै
बेढंग बेवस्था पर मने-मन कुहरै छै
सोचै छै, समझै छै, बूझै छै, गुनै छै,
भाँगलोॅ नसीबोॅ पर माथा केॅ धूनै छै
‘झुट्ठे ई नारा-परचार सब्भैं केॅरै छै

आपने लेॅ, आपने रँ लोगोॅ लेॅ मेॅरै छै।

”नारा गरीबोॅ रोॅ, सौदा अमीरी के
खुब्बे ई शासन छै बस जी हजूरी के!

”केकरा छै मतलब गरीबोॅ रोॅ बातोॅ सेँ
पैसा कमाना छै लातोॅ सेँ, जातोॅ सेँ
सामरथ केॅ पैसा छै, पदवी, मनोरंजन छै
एक्के गरीबोॅ रोॅ खाली दुरगंजन छै
टाका छै जेकरा, लड़ाबै छै लोगोॅ केॅ
बूनै छै मनोॅ मेँ की-की नै रोगोॅ केॅ।

”भुक्खड़ की करतै; ऊ लालच मेँ बिकथैं छै
जे-जे सिखाबोॅ सब हेना मेँ सिखथैं छै
नारा दिलबाबोॅ, गिरबाबोॅ वोट मेॅनोॅ सेँ
कीनी ला जे छै गरीबोॅ केॅ धेॅनोॅ सेँ!

”कल जों गरीबो भी बड़का रँ होय जैतै
मनबिच्छा राजा केॅ गद्दी की नै देतै?

”गद्दी बचाबै लेॅ राजां ई जानै छै
टाका, गरीबी अेॅ जातोॅ केॅ मानै छै
जाती मेँ बाँटी केॅ सब्भे मनुक्खोॅ केॅ
बाँटलेॅ छै राजा नेँ अपना मेँ सुक्खोॅ केॅ।

”हिन्नेॅ सब जातोॅ रोॅ फेरा मेँ ओझरैलोॅ
मुठ्ठी भर अन्नोॅ लेॅ केन्होॅ छै टौव्वैलोॅ
केकरा समझाबेॅ के? कोय भी समझतै की
हेनोॅ बौरैलोॅ छै, कुच्छू कोय बुझतै की
राजा तेॅ ठिक्के सेँ रहतै हीं; रेॅहै छै
परजा केॅ सहना छै जे-जे, से सेॅ है छै
सेॅहै छै हेनै केॅ? आपनोॅ करतूतो सेँ
है जे टौव्वावै छै-उच्चोॅ -अछूतोॅ सेँ!

‘खूब्बे परचार करोॅ उच्चोॅ -अछूतोॅ रोॅ
आदमी रोॅ बस्ती मेँ आदमी के भूतोॅ रोॅ
पत्थर केॅ पूजै छै, घिरना मनुक्खो सेँ
फाटतेॅ होतै छाती देव्हौ रोॅ दुक्खोॅ सेँ।

”पूजा मेँ, प्रेमोॅ मेँ, स्नेहोॅ मेँ, भक्ति मेँ
गिरला केॅ ऊपर उठावै के शक्ति मेँ
शांति छै, जीवन छै, पापोॅ रोॅ मुक्ति छै
सुक्खोॅ सेँ रेॅहै रोॅ यहेॅ एक युक्ति छै।

”लोगें नै मानें छै, लड़ै छै। की करभौ!
जरै छै जानी केॅ, जेरै लेॅ दौ। की पड़भौ!
मतुर ई जानले छै-ई तेॅ एक आग छेकै
चानोॅ के मुँहोॅ पर करिया रँ दाग छेकै
मिली केॅ रेॅहेॅ देॅ यैं नै मनुक्खोॅ केॅ
सुक्खोॅ रोॅ लहू पिलाबै यैं दुक्खोॅ केॅ
आरो ई जब तक दुख रहतै, ई मानले छै
टाका पर बिकथैं ही रहतै सब, जानले छै।

”थोड़ोॅ टा सुक्खोॅ लेॅ जिनगी रोॅ दुक्खोॅ केॅ
जोड़ै छै, आरो बोहाबै छै सुक्खोॅ केॅ
केकरा समझाबैॅ के; कोय्यो समझतै की
हेनोॅ बौरैलोॅ छै, कुछ्छू, कोय बुझतै की
जाति रोॅ बल्लोॅ पर, धरमोॅ के नामोॅ पर
हीरा की मिललोॅ छै कौड़ी के दामोॅ पर?

”लेॅडै़ के छेकै गरीबी सेँ; लड़तै नै
अच्छा जे रस्ता छै, ओकरा पर बढ़तै नै
लेॅड़ै के छेकै मनुक्खोॅ रोॅ दुश्मन सेँ
लड़ै छै कोयरी सेँ, कैथोॅ सेँ, बाभन सेँ।

”सब्भे जातोॅ मेँ कोय पापी तेॅ होतै छै
ओकरोॅ संग कैन्हें कोय जाति केॅ जोतै छै
ई तेॅ एक चाल छेकै आदम रोॅ शतरू के
भूलो सेँ समझोॅ नै भूल कीाी बुतरू के
जौनें नै चाहै छै आदमी रोॅ सुक्खो केॅ
जाति रोॅ नामें लड़ाबै मनुक्खोॅ केॅ।

”हमरा नै समझै मेँ कटियो टा आबै छै
जाति मेँ आखिर की केकरा बुझाबै छै
आपना कन राम छेलै, कृष्ण छेलै, व्यास भी
गौतम भी, बाल्मीकि, संत रैदास भी
जातिये के कारण की हिनी महान छेलै’
आरो की यै वास्तें-हिनका मेँ ज्ञान छेलै।

”जाति रोॅ बल्लोॅ पर खाड़ोॅ के रहलोॅ छै
व्यासें नेँ ‘भारत’ मेँ आखिर की कहलोॅ छै-
कर्मै बनाबै छै जाति मनुक्खो रोॅ
भुलबे ई बातोॅ केॅ जोॅड़ छेकै दुक्खोॅ रोॅ
अच्छा मनुक्खोॅ केॅ दुनियाँ ही खोजै छै
कौने नै विष्णु केॅ, शंभू केॅ पूजै छै!

”शुंभो भी कैन्हें नी घर-घर पुजाबै छै?
लोगोॅ केॅ समझै मेँ कैन्हें नी आबै छै?
”आपने नै चेततै, तेॅ लोगें लड़ैतै नै
उच्चोॅ-अछूतोॅ के खोड़ा पढ़ैतै नै

लड़ै, तेॅ हमरा की! लेकिन ई लड़ला सेँ
राकस रोॅ रस्ता पर जानी केॅ बढ़ला सेँ
होतै की? लड़तै सब, लोगोॅ रोॅ नाश होतै
धरती पर भूतोॅ-पिचासोॅ रोॅ बास होतै
लोगोॅ रोॅ रहतै बस एक्के कहानी ही
लागतै बुझव्वल रँ, एकदम पिहानी ही।

”घेॅ रोॅ मेँ बाघोॅ रोॅ, बानर रोॅ बास होतै
मन्निर मेँ देवोॅ ठाँ राकस रोॅ रास होतै
होतै तेॅ हमरा की! हमरोॅ के मानै छै
केॅथी लेॅ उच्चोॅ-अछूतोॅ केॅ ध्यानै छै
ध्यानौ, तेॅ हमरा की! लेकिन है ध्यानला सेँ
लोगोॅ के लोगोॅ मेँ भेदभाव मानला सेँ
लड़थैं ही रहतै सब आरो गरीबी ई
जाबेॅ नै पारेॅ छै केन्हौं केॅ आभी ई।

”राजा तेॅ चाहतै छै, लेॅड़ौ कोय बात लै
‘मुँहोॅ मेँ धरमोॅ केॅ, माथा मेँ जात लै’

”हुन्नेॅ तेॅ राजा रोॅ छक्का छै छक्का पर
टाका हँसौतै छै थक्का रोॅ थक्का पर
घूमै छै सरंगोॅ मेँ, वायु सेँ बात करै
टाका रोॅ बल्लोॅ पर दिनोॅ केॅ रात करै
छन्है मेॅ सागर के पार, छन्है दिल्ली मेँ
हमरे रँ ठोकलोॅ छै बाँसोॅ रोॅ किल्ली मेँ!
बगुला रँ कपड़ा मेँ टोपी की धारै छै
महकै छै चन्दन-पसीना जों गारै छै
आबै तेॅ की रँ के हद-हद-हद भीड़ जुटै
देखे मेँ, केकरो मूँ-हाथ, कहीं गोड़ टुटै।
‘देवथौ केॅ देखै लेॅ एत्तेॅ नै लोग जुटै
बाबू हो, सरंगोॅ मेँ बिग्घिन रँ लोग टुटै!

”राजा केॅ है सबसेँ मतलब की? भाखै छै
धरती सेँ ऊपर ही टाँग-हाथ राखै छै
के नै ई जानै छै-एत्तेॅ कुछ, टाका लेॅ
हाय-हाय केॅरै की देशोॅ लेॅ? टाका लेॅ
चाहै छै, भरौं तिजोरी मेँ, घेॅरोॅ मेँ
छपरी मेँ, ठारी मेँ, मिट्टी के तेॅरोॅ मेँ
सोचौ तेॅ, यै मेँ छै परजा रोॅ भाव कहाँ
केकरो लेॅ छोड़ै छै तनियो टा दाव कहाँ
केन्हौं केॅ सबटा हसौतै मेँ लागलोॅ छै
परजा रोॅ राजोॅ मेँ राजा-भाग जागलोॅ छै।

”केकरा छै ताकत कि राजा केॅ रोकी लौ
भूलो सेँ अनचोके कथू लेॅ टोकी लौ
लड़तै सब आपसे मेँ, राजा केॅ रोकतै की
आपने झोकैलोॅ छै, दुश्मन केॅ झोंकतै की!

”कोय की सराहै लायक! केकरा तों कहबौ की
आपने मूँ जरलौं छौं; दूसरा केॅ दूसबौ की
जब ताँय दिल साफ नै लोगोॅ रोॅ हुऐ छै
मेॅनें नै मनोॅ केॅ नजदीक सेँ छुऐ छै
तब ताँय गरीबी मिटाबौं; विचारे की?
पहुनोॅ दलिद्दर सेँ छूटै के चारे की?
शोषण-व्यवस्था, गरीबी मिटाबै लेॅ
लोगोॅ सेँ लोगोॅ केॅ लागेॅ जुड़ाबै लेॅ
तभिये कोय काम हुएॅ पारै छै सुक्खोॅ रोॅ
नै तेॅ बिण्डोबोॅ ई देखथैं छोॅ दुक्खोॅ रोॅ।
‘नै करै राजा पर चाहियोॅ की? क्षेम करेॅ
सौंसे समाजोॅ रोॅ परजौ सेँ प्रेम करेॅ
राजा तेॅ राजै छै! परजो मेँ भेद की
चलनी मेँ छेद हुएॅ, घैलोॅ मेँ छेद की?

”ज्ञानी जे राजा छै-वैं ई सब समझै छै
परजा रोॅ रूपोॅ मेँ ईश्वर केॅ बूझै छै
आबेॅ पर है रँ के राजा रोॅ लोप भेलै
यै लेॅ कि पंडित सब, काजी सब, पोप भेलै
देखै छी सब्भे अधर्मे मेँ हेलै छै
मट्टी केॅ हपकै छै, पापोॅ सेँ खेलै छै।

”पापे नी छेकै कि धरमोॅ के नामोॅ पर
लड़ै, लड़ाबै छै, काटै छै दुनियाँ भर
माँटी मेँ देश मिलेॅ, गाँव मिलेॅ, लोग मिलेॅ
लोगोॅ रोॅ लोगोॅ सेँ पुस्तैनी प्रेम हिलेॅ
है रँ के धरमोॅ सेँ अच्छा अधर्मे नी!
रहबोॅ विधर्मी; कोय कहतै बेशमेॅ नी!
धर्मोॅ रोॅ झंडा जे देश-दोस्त बाँटै छै
खूनोॅ रोॅ रिश्ता केॅ झाडू सेँ झाँटै छै
एकरा सेँ बेॅढ़ी कॅे पाप आरो की होतै
धर्मे नी शाप तबेॅ? शाप आरो की होतै?

”अलबत ई लोगो छै, समझै नै, बूझै छै
धरमोॅ के नामें अधरमे बस सूझै छै
केॅ थी लेॅ? की मिलतै-टके-सिंहासन नी!
ज्यादा सेँ ज्यादा इनरासन रोॅ शासन नी?

”कौनें अमरितोॅ रोॅ धार पीबी ऐलोॅ छै
ब्रह्मा रोॅ किस्मत केॅ बान्ही केॅ लानलोॅ छै
दू दिन रोॅ ताम-झाम फेरू फगदोले नी
हंसा बिन जलतै शरीरोॅ के खोले नी
के फेरू हमरा लेॅ? हमरोॅ लेॅ की रहतै
सम्पत? सिंहासन? की इनरासन साथ जैतै
पदवी? प्रतिष्ठा? की कंचन रे काया ई?
जात-पात, धरम-वरन, धरती रोॅ माया ई!

”मट्टी, आकासोॅ, बतासोॅ रोॅ, आगिन रोॅ
देहोॅ रोॅ भागे की निट्ठा अभागिन रोॅ!

”तहियो है देहोॅ रोॅ मानलोॅ छै, मोल छै
कत्तो ई आगिन रोॅ, पानी रोॅ खोल छै
मिट्टी रोॅ देहोॅ सेँ कटनौ तेॅ मुश्किल छै
हंसा-कुहंसा सब एकरै मेँ शामिल छै
देहे नै रहतै, तेॅ उच्चोॅ विचार कहाँ
देवोॅ रोॅ, दुखियो रोॅ, केकरो उपकार कहाँ
हंसा केॅ साधै लेॅ येॅहो तेॅ जोगनै छै
जे कुछ यैं भोगै छै, ऊ सब तेॅ भोगनै छै

”लेकिन सीमानै मेँ सब्भे कुछ ठीक छै
गाड़ी केॅ हाँकै लेॅ बनले तेॅ लीक छै
लेकिन के हाँकै छै! हाही रोॅ मारलोॅ सब
साँसोॅ रोॅ धौंकनी सेँ हंसा तक जारलोॅ सब
एकरै सेँ दुनियाँ मेँ हेत्तेॅ ई हाय-हाय
पश्चिम सेँ लै केॅ पूबारी तक कांय-कांय।

”है रँ रोॅ लछ्छन मेँ दुनियाँ सुधरतै की!
पेटोॅ रोॅ रेसोॅ मेँ कमजोरें करतै की?

”एकोॅ रोॅ देह सूखी करची रँ बनलोॅ छै
दुसरा रोॅ पेट फूली बेलुन रँ तनलोॅ छै
देवता रोॅ रस्ता सुझैतै की, देहे नै?
हरियैतै धरती की? सरंगोॅ मेँ मेहे नै।

”भाखन दै राजां विचारोॅ सब सुन्नर रोॅ
धरती पर बसवै, समृद्धि सब इन्नर रोॅ
एकदम झूठ; भरलोॅ छै पेट तहीं बोलै छै
आसन पर साँपोॅ रँ देह तहीं डोलै छै
की बसतै, धरती पर स्वर्ग; सभे जानै छी!
जनमी केॅ कानलौं, तखनिये सेँ कानै छी!

”जेकरा जरूरत छै जतना, ऊ मिलेॅ तेॅ
कोढ़िये मेँ कुम्हलैलोॅ फूल पहिलेँ खिलेॅ तेॅ
धरती पर स्वरगोॅ केॅ होनै छै, आनै छै,
कल्पवृक्ष सुक्खोॅ रोॅ जानी लेॅ खिलनै छै!

”एकरा मेँ राजा केॅ पहिनें सुधरना छै
उच्चोॅ पेट काटी केॅ खलिया केॅ भरना छै
आरो जरूरी छै लोगो रोॅ शिक्षा के
परहित रोॅ आरो संतोखोॅ रोॅ दीक्षा के
ओकरा बताना छै-एत्तेॅ ई जोड़ै मेँ
स्वर्ग कहीं धरलोॅ छै माथा केॅ फोड़ै मेँ!

”माँटी रोॅ देहोॅ रोॅ एत्तो की ताम-झाम!
एक दिन तेॅ होनै छै अर्थी पर राम! राम!
लहकी केॅ सारा पर मिट्टी मेँ मिलनै छै
कत्तोॅ मजबूत करोॅ पाया ई हिलनै छै

”एकरै लेॅ एत्तेॅ ई सोना जुटावै छै!
एत्तेॅ, कड़कड़िया ई रौद मेँ टटावै छै!
‘देहोॅ लेॅ देहे भर! हंसा लेॅ जोड़ना छै
हाही रोॅ जब्बड़ दीवारी केॅ तोड़ना छै
जोड़ना की जाति रोॅ नामोॅ पर? धरमोॅ पर?
कथी लेॅ कूदै छै कुत्ता के करमोॅ पर!’

‘जानेॅ ऊ दिन कहियो की घुरतै देशोॅ मेँ
एक्के रँ लागतै सब एक्के रँ भेषोॅ मेँ
एक्के रँ बोलतै सब मिसरी रँ बोली मेँ
मन मोहतै; नैकी बहुरिया जों डोली मेँ
आरो बस एक्के जात होतै मनुक्खोॅ रोॅ
घुरतै ई देशोॅ मेँ कहिया दिन सुक्खोॅ रोॅ
कहिया दिन ऐतै, कुधरमोॅ केॅ छोड़ी केॅ
जात-पात, ऊँच-नीच-परथा केॅ तोड़ी केॅ
रहतै सब आपने रँ आपनोॅ ई देशोॅ मेँ
एक्के रँ लागतै सब एक्के रँ भेषोॅ मेँ

‘रूप-रँग सब्भे रोॅ एब्भे रँ होतै पर
मेॅनोॅ के रूप-रँग एक्के रँ होतै पर
कानतै कोय, सब्भे रोॅ आँखी मेँ लोर होतै
गुजगुज अन्हरिया मेँ कहिया है भोर होतै?
जमतै चौपाल कबेॅ फेरू दुआरी पर?
बिरजू रोॅ ऐंगना मेँ, रमजू खमारी पर?
मिसिर का, मंडली का, दत्ता दा साथ होतै?
दुनियाँ भर लोगोॅ रोॅ दुनियाँ भर बात होतै?
सरजू सिंह जादव रोॅ बिरहा की! चेता की!
मेॅनोॅ सेँ होन्हे चौपालोॅ मेँ गैता की?
रानी सुरँगा रोॅ, कमला रोॅ गीत हौ!
बिहुला रोॅ वाला सेँ मरल्हौ पर प्रीत हौ!
राजा सलेसोॅ केॅ सपना हौ मैया रोॅ!
कसकै करेजोॅजे सुनथैं सुनवैया रोॅ!
जानेॅ ऊ दिन कहिया की घुरतै देशोॅ मेँ?
मंगरू दा मोहतै भर्तृहरि रोॅ भेषोॅ मेँ!

”पूजा मेँ, परबोॅ मेँ मिलतै सब होन्है केॅ
मानतै सब, सब्भे केॅ जेना कि पहुन्है केॅ।

”काली-दशहरा मेँ नाटक हौ राणा रोॅ!
मंचोॅ पर चलती हौ केशरिया बाना रोॅ!
बाबू कुँमरजी रोॅ देशोॅ लेॅ कुरबानी!
झन-झन-झन झाँसी रोॅ असकल्ली मर्दानी!
आरो कौशल्या रोॅ कानबोॅ हौ राजा लेॅ !
रामोॅ रोॅ राजपाट सब्भे टा परजा लेॅ !
रावन रोॅ राजोॅ मेँ सीता रोॅ साहस हौ!
लक्ष्मण रोॅ मुरछा पर रामोॅ रोॅ ढाढ़स हौ!
नाटक की नाटक रँ लागै! बस सच्चे रँ
दशरथ रोॅ बच्चो जों कानै तेॅ बच्चे रँ!’

”आबेॅ हौ बात कहाँ, सब्भे रोॅ साथ कहाँ
अच्छा सत्कमीॅ मेँ दस ठो रोॅ हाथ कहाँ
केॅहाँ हौ मस्ती छै! केॅहाँ मेँ धूमधाम!
केॅहाँ रामलीला मेँ भीजै छै सीताराम!

”कहाँ हौ होली के रँगोॅ रोॅ छर्र-छर्र!
गिरै पिचकारी सेँ दूधे रँ गर्र-गर्र!
बदली जाय देहरी-दुआरी के रँगे-रूप
गिरै असमानोॅ सेँ एकदम गुलाबी धूप
मिरबा का, मंटू दा, मटरू दा, चौरासी
तछमनियाँ, लपकी बहुरिया रोॅ नन्दोसी
पचकौड़ी (पाता पुरहैतोॅ रोॅ) ढोढ़ी दा’
छोड़ै की केकरौ? है कहलोॅ पर-‘छोड़ी दा!

”हुन्नेॅ बुलाकी रोॅ सब्बड़ कनियैनो की!
सामना मेँ ठेॅठै मरदाना मेहमानो की?
रूपसा, बरमपुर रोॅ, डाँढ़े, झपनिया रोॅ
आँखी मेँ नाँचै छै होली दुल्हैनियाँ रोॅ!
उड़ै अबीरोॅ रोॅ बादल; रँग बरसै की!
भीजै सब एक्के ठाँ; भीजै लेॅ तरसै की!
की गोरोॅ, की गेहुआँ, रँगोॅ-अबीरोॅ सेँ
लागै कन्हैये रँ आपनोॅ शरीरोॅ सेँ
होन्है केॅ कहिया सब मिलतै ई देशोॅ मेँ
एक्के रँ लागतै सब एक्के रँ भेषोॅ मेँ!

”ऐतै तेॅ ऐतै ही, बाकी कुछ देर छै
ऐलोॅ नै सुख छै तेॅ कर्मे रोॅ फेर छै
धरती रोॅ बेटा नै आभी ताँय जगलोॅ छै
किस्मत मेँ फेरा शनिच्चर रोॅ लागलोॅ छै
फेरा ई टुटनै छै, आदमी केॅ जागनै छै
कत्तेॅ देर ग्रसतै चान? राहू केॅ भागनै छै
मिलतै सब भेद-भाव भूली केॅ आदर सेँ
पूजा रोॅ जोग मानी हमरो रँ कादर सेँ
सुग्गे रँ मीठ्ठोॅ बोल, बोलतै सब आपस मेँ
अन्तर तेॅ आनै छै लोगोॅ मेँ, राकस मेँ
एक्के रँ सोचतै सब, एक्के वेवहार-बात
प्रेमे एक धर्म होतै आरो मनुक्खे-जात
घुरी केॅ बितलोॅ दिन आन्हैं छै देशोॅ मेँ
एक्के रँ लागतै सब एक्के रँ भेषोॅ मेँ!

”खुब फूलेॅ, झूमेॅ, गाबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!
देश केॅ सुन्दर बनाबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!
होय अचंभित बोलेॅ कोयल भी बनोॅ मेँ आम रोॅ
बोल कुछ हेनोॅ सुनाबेॅ लोग हमरोॅ गांव रोॅ!
रूठी केॅ चल्लोॅ गेलोॅ छै शांति बीजू वन मेँ जे
दूत लानै लेॅ पठाबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!
जे महत्मा, पीर, पंडित नेँ बतैंनें छै यहाँ
बात ऊ भुललोॅ बताबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!
दिल मेँ उमड़ेॅ प्यार रोॅ गंगा नदी, सिंधु नदी
राग कुछ हेनोॅ सुनाबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!

”लीक सें बेलीक होय चल्लै बहुत, आबेॅ रुकेॅ!
बुद्ध बनना छै कि अँगुलीमाल भी आगू झुकेॅ!
रास्ता बाकी बहुत छै, वक्त थोड़ोॅ छै मतुर
राह मेँ है रँ झगड़बोॅ केेकरा शोभै छै! अधुर!
बात है सब केॅ बताबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!
खूब फूलेॅ, झूमेॅ, गाबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!

”लूट, हिंसा, द्वेष, घिरना पूँजी नै हमरोॅ छिकै
हम्मेँ सब ऊ नै छिकौं जे पाप रोॅ धन पर बिकै
खून मेँ हमरोॅ घुलै छै राम-राणा रोॅ लहू
कष्ट देखी के हहरलै हमरोॅ पूर्वज की कहूँ?
तेॅ केना हम्में हहरबै पाप रोॅ अन्याय सेँ?
की कहूँ प्रह्लाद जललै होलिका के हाय सेँ?
मानलौं कि देश मेँ फेरू दुशासन-जोर छै
द्रोपदी रोॅ आँख मेँ डबडब-लबालब लोर छै
दै हँकारोॅ कुंभकरणोॅ रोॅ बलोॅ पर दशमुहाँ
वीर देशोॅ रोॅ लखन अेॅ रामो पर डरलोॅ कहाँ?
रास्ता हमरा बनाना छै वनोॅ रोॅ बीच सेँ
भेंटबे करतै, मतुर डरना की बाघोॅ-रीछ सेँ!
राजां परजा सेबतै फेरू भिखारी भेष मेँ
रास रचनै छै फिरू सेँ ही समुच्चे देश मेँ
सीख सन्तोॅ रोॅ सिखाबेॅ लोग हमरोॅ गाँव रोॅ!
खूब फूलेॅ, झूमेॅ, गाबेॅ, लोग हमरोॅ गाँव रोॅ“

देखै छै सपना की सुन्नर-सब हाँसै छै!
गुजगुज अन्हरिया मेँ गेना निरासै छै।