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कुच्छो नैं सूझै छै / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

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बुधना!
कबतक रहबे बेरोजगार?
चल पंजाब, दिल्ली।
सबकेॅ मिली जाय छै काम।
हमरौह मिली जैयतै।
यहाँ खैबे की?
केनाँ बनतौ मकान?
केनाँ होयतौ-
बेटी केॅ वियाह?
बेटाँ, बेटीं-
केनाँ पढ़तौ?
कहाँ से अयतौं कौपी-किताब?
सबतेॅ ऊपरे ऊपर-
उड़ी जाय छै।
गिनला, चुनला के-
मिली जायछै पोशाक।
लेकिन कागज भरी जायछै।
पता नैं-
केकरऽ-केकरऽ लिखी लै छै नाम।
मुखियाँ, मास्टरें-
सब गिली जायछै।
सरकारें दै छै-
कामों रऽ गारन्टी-
अखबारऽ में निकलै छै-
कामों रऽ दिन।
कत्तेऽ मिलतै मजदूरी?
सभ्भे कहा चल्ल जाय छै?
केतना बड़ऽ छै-
हाकिम, मुखिया आरो-
करमचारी रऽ पेट?
बाप रे!!
भरथैं नैं छै।
नेतबोॅ कुछ नैं बोलै छै।
आधऽ पेट खाय केॅ-
कबतक रहभैं?
हमरो हाल ऐहनें छै।
भुखनी माय भागलै नैहरऽ-
छोटकी बेटी केॅ लेलकै साथ-
आरो सभ्भे यहीं छै।
करियै कोन उपाय?
कच्छो नैं सूझै छै?
कुच्छो नैं सूझै छै?
कुच्छो नैं सूझै छै?

-16.07.08
अंगिका लोक, जुलाई-सितम्बर, 2015