भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़ लागै छै / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:15, 29 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कस्तूरी झा 'कोकिल' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक्को घड़ी आपनें बिना पहाड़ लागै छै।
सूनीं महलिया में सिंघो के दहाड़ लागै छै।।

थर-थर देह काँपै छै,
फेफड़ो अजी हाँफै छै।
मोॅनों खूब्बे अकुलाय छै,
कोय कहाँ बहलाय छै?

रही-रही घोड़ा रॅ लताड़ लागै छै।
एक्को घड़ी आपनें बिना......दहाड़ लागै छै।

पैर ठीक रहलॉ सें
बूली लरी ऐतियाँ।
सूखी सहेली सें
बोली-बाजी लेतियाँ।

जीते जी भारी सुखाड़ लागै छै।
एक्को घड़ी आपनें बिना......दहाड़ लागै छै।

खाना पीना होयतै छै,
सेवा टहल मिलथैं छै।
नूनूँ साथ सुतथैं छै,
गीतनाद सुनथैं छै।

अकेली समैया मतुर दम-पछाड़ लागै छै।
एक्को घड़ी आपनें बिना पहाड़ लागै छै।
सूनीं महलिया में सिंघो के दहाड़ लागै छै।