गाछ गुलमोहर के / धनन्जय मिश्र
कोसो के जतरा तै करी
हम्में छेलां थकान सें चूर-चूर
गोड़ोॅ में जेना
बूलै के क्षमतै नै रहै
तेॅ बैठी गेलियै
वही ठां
गुलमोहर के
वहॅे गाछी नीचें
जैमें खिललोॅ छेलै
लाल टेस फूल।
दोपहर के रौद
तिलमिलाय वाला छेलै
मजकि गाछी के नीच
हावो बहै छैलै
मंद मंद
चलना छै आरो
बाकी छै आरो जातरा
डुबलोॅ छेलियै चिन्ता में
कि तभिये
तज हवा रोॅ झोंका
ऐलै
देखलियै
झोका के खहारा पावी
गाछी के एक डाल
झुकी ऐलोॅ छै
हमरोॅ दिश
ढेर-ढेर फूलोॅ के झुक्कोॅ
कोनोॅ में कहलकै
हौले सें
ढेर-ढेर बात।
कहलकै फूलें हमरा सें
दमकतै रहोॅ
हमरा नाँखी
चलत्हैं रहोॅ
चलत्हैं रहोॅ
कत्तेॅ धूप तमतमावेॅ।
कखनी बात खतम होलै
कखनी हमरोॅ देहोॅ में
भरी गेलै स्फूर्ती
उठी गेलै गोड़
बाकी जातरा केॅ
पार करै लेली
सूखी गेलै चेहरा पर
चमकतें सब घाम।
उठलियै
तेॅ उठी गेलै डालो
माथा सें बहुत ऊपर
जेना आशीष देतें रहेॅ
हमरा गाछ गुलमोहर के।