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आठमॅ सर्ग: भरत / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

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Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:31, 11 मई 2016 का अवतरण

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घरॅ भरी में सबके सब छै अस्त-व्यस्त,
चिन्ता मं डुबलॅ देखी केॅ छै मॅन पस्त,
हिरदै में पीड़ा के उफान छै भरतॅ के,
उमड़ै गरान, तड़पै परान छै भरतॅ के।

है कसलॅ जाय छै कोनी कर्मॅ के फंदा?
फँसलॅ छै जीवन, होलॅ जाय छै दिन मंदा,
कोय नै बूझै छै सच की छै, की झूठा छै,
माया सें भरलॅ दुनियाँ बड़ी अनूठा छै।

जे माया केॅ समझै में थकलै सिद्ध-मुनी,
जे माया के गुनगान करै में कबी-गुनी,
वें माया भावटॅ आपनॅ आप समेटी केॅ,
राखी देलकै फूलॅ पर काँटा झज्ञरी केॅ।

आँसू घोंटै छै, बुझला में नै आबै छै,
कुल के कलंक के भागी ऊ कहलाबै छै,
जिनगी में है रं मोड़ कहाँ ऐलॅ छेलै,
ऊ निष्कलंक लागै लेॅ उधियैलॅ छेलै।

बें तोड़ी देलकै मर्यादा आवेशॅ में,
माय्यो केॅ माय बुझलकै नै वें रोषॅ में,
फन काढ़ी केॅ साँपॅ रं ऊ लहरी उठलै,
दूधॅ के मोल भुली केॅ ऊ घहरी उठलै।

लेकिन, आवेश बिलाबै छै पछताबा में,
कत्तेॅ बिचार उलझन में, सहज भुलाबा में,
होय केॅ निरीह आदमी तखनिये भटकै छै,
धरती-सरंग के बीच बिवश रं लटकै छै।

भरतो कुछ-कुछ बहिने गति में आबी गेलै,
आदॅ के नद्दी आसिन केॅ पाबी गेलै,
सोचै छै बदली गेलै जीबन के माने,
विधि ने कपार में की लिखने छै के जानेॅ?

लेकिन, कलंक के बोझॅ जिनगी भर ढोना,
छूला सें सोबड़ॅ होलॅ जैतै सब सोना,
सबके नजरीं में गिरलॅ जीवन जीना छै,
कपसी-कपसी अपमान हलाहल पीना छै।

सोचतें होतै की राजाँ, कोनी भावॅ सें?
पोसने छेलै कत्तेॅ दुलार सँ, चावॅ सें?
हुनकॅ तड़पॅ के आय निमित्त बनी गेलाँ,
पंथॅ-बदलां कफ-बायु पित्त बनी गेलाँ।

सेवा के धरम अधूरा रहलै बेटा के,
एक्को नै करम खुशौवा रहलै बेटा के,
उल्टे, गोस्सा के आगिन में मुँह झौंसी के,
दुख देलियै पिता, माय, मंथरा मौंसी के,

गोस्सा तेॅ होय छै काल, चढ़ी केॅ बोलै छै,
ऊ साँपॅ रं बिकराल बनी केॅ डोलै छै,
गीलै छै पहिने गट-सें बुद्धि बिबेकॅ केॅ,
हैमान बनाबै छै चट-सें वें नेकॅ केॅ।

दुर्बल-निरीह केॅ वें सताय छै, मारै छै,
बलबानॅ केॅ धिक्कारै छै, फटकारै छै,
ऊ जॅड़ बनै छै सब अनर्थ-अपराधॅ के,
स्वादिष्ट सहज पाथक अताय के व्याधॅ के।

चंदन रं धारलके गू-मूत कपारॅ पर,
फुललै बचपन छन-छन जेकरॅ पुचकारॅ पर,
बीछी केॅ काँटॅ जें की फूल बिछैने छै,
हमरॅ नीनॅ लेॅ आपनॅ नीन गमैने छै।

नेहॅ सें हरदम दासमदास बनी गेलै,
हमरे मन के भावॅ केॅ पढ़ी-पढ़ी बहलै,
सब कुछ तेजलकै हमरा सुख पहुँचाबै लेॅ,
अबतक सीखलकै कुछ नै आरो गाबै लेॅ।

सोचॅ तेॅ, वें मन्थराँ कहतियै आरो की?
उमड़ी ऐलॅ वात्सल्य, बहतियै आरो की?
एकरा में ओकरॅ स्वार्थ कहाँ कुछ भी छेलै?
जे कुछ छेलै, ममता के धार बही गेलै।

ओकरा रघुकुल के जश सें लेना देना-देना की?
सोचलकै, ओतने भरतॅ के सुख जेना की,
जिनगी भर सँचलॅ रहेॅ राज के रूपॅ में,
देखलकै वें सब मान-प्रतिष्ठा भूपॅ में।

एकरा में ओकरॅ दोष कहाँ जे कोसलियै?
ममता केॅ धिरकारी गौरब केॅ पोसलियै,
जिनगी भर जें अरमान लुटैलकै हमरा पर,
दुर्बल पाबी अभिमान देखैलियै ओकरा पर।

लोरॅ सें भरलॅ आँख, भरत विह्वल भेलै,
उमड़ी केॅ एक गरान, सभे करनी ठेलै,
जे ई ब्यबहार करलियै मैया के साथें,
की छेलै उचित वहेॅ रं बेटा के हाथें?

गुमसुम छै आपनॅ करनी पर ऊ सिसकै छै,
सबके ताना बरदास करी केॅ कपसै छै,
ओकरा छेलै विश्वास भरोसॅ हमरा पर,
प्यारें ममता नै आस करै छै दोसरा पर।

जे कुछ भेलै ऊ भरतें ने मानी लेतॅ,
माय्के इच्छा परसादॅ रं जानी लेतॅ,
ई ओकरा रहै गुमान भरत रं बेटा पर,
तभियें पड़लै ऊ ऐहनॅ लाग-लपेट पर।

लेकिन, दुनियाँ सें आय दूर ऊ लागै छै,
असहाय मृगी रं सब आँखी सें भागै छै,
जेकरा बेटाँ नै माय बुझलकै ‘माय’ कही,
कहिने नै दोसरें दुत्कारेॅ ‘असहाय’ कही।

दुर्दिन में पड़लॅ पत्ता रं ऊ भटकै छै,
दुनियाँ में आय्केॅ सबके आँखी खटकै छै,
जे माय पहुँचलै मातृत्वॅ के सीमा पर,
ऊ कुल के गरिमा पर त्रिशंकु रं लटकै छै।

बस करने छै माता के करतब, माता ने,
ओकरा सें करबैलकै बेटा के ममता ने,
लेकिन, बेटाँ दुत्कारी केॅ, धिक्कारी केॅ,
अपमान करलकै, कुल के लाज बिचारी केॅ।

यै कुल के लाजॅ के भागी की बेटा नै?
ममता पर बान्हेॅ कर्तब्यॅ के फेंटा वें?
जे ज्वार उमड़लॅ छै मातृत्व उफानॅ पर,
छै बनी परीक्षा ऊ बेटा के आनॅ पर।

लेकिन, बेटा ने की कर्तब्य निभैने छै?
कटु बोली सें मैया के मॅन दुखैने छै,
जे प्रेमॅ के मुतीं, ममता के देवी छै,
वें करी उपेक्षा ओकरॅ मान घटैने छै।

भैयाँ खोजलकै त्यागॅ के रस्ता जे में,
हम्में कलंक के देखलियै बस्ता वै में,
अपना-अपनी नजरीं सॅ सभ्भैं देखै छै,
दोसरा के बल्हौं दोष करी केॅ लेखै छै।

हम्हू त्यागॅ के राह चुनै लेॅ पारै छीं,
लेकिन पामर छीं, कमजोरी सें हारै छीं,
भैयाँ जंगल में राजॅ के सुख मानै छै,
तेॅ राज सिंहासन केॅ जंगल पर बारै छीं।

जेकरॅ रीनॅ सें कोय् नै कभी उरिन भेलै,
जेकरॅ महिमा के आगूँ स्वर्ग मलिन भेलै,
जे बिधि के रूप धरी दुनियाँ में आबै छै,
जें कष्ट सही केॅ कुल के दिया जराबै छै।

वै माता के अपमान क्रोध में आबी केॅ,
करने छीं हम्मंे ओकरा दुर्बल पाबी केॅ,
ओकरो आँखी में भी तेॅ एक गरान छेलै,
शायद पैहने सें छटपट करै परान छेलै।

पोछी लेलकै आँसू वें अँचरा-कोरॅ सें,
सब कुछ बोली देलकै वें अपना लोरॅ सें,
तखनी हम्में कुछ नै देखलियै कट्ठर रं,
अटपट कत्तेॅ बोली देलियै यै ठोरॅ सें।

भरतॅ के आँख लोरैलै अपना करनी पर,
मैया के गोड़ॅ पर गिरलै दुख-हरनी पर,
ममता के बान्हन टूटी केॅ छितराय गेलै,
छन भर में सौंसे दुनियाँ आय दहाय गेलै।