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उद्विग्नता / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’

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नभ घटाटोप, झरझर प्रवाह;
उद्विग्न विवश अन्तर प्रदाह।
भोरकोॅ सपना भरमावै छै,
या भावी रूप दिखावै छै!

नियमित संध्या, नियमित वंदन;
नियमित अहार, निश्छल विचरण
आवास शांत, परिवेश प्रहर्ष;
निकलुष निशांत में शयन हर्ष।

तैय्यो हमरोॅ छै हृदय क्लांत;
तन तार-तार, मन विकल-भ्रांत।
कारण की, जे अन्तः काँपै छै;
गंभीर प्रकृति के नापै छै!

शय्या पर भरत पटैलोॅ छै
धूलि से प्राण लेटैलोॅ छै।

ब्राह्मण-भोजन, शंकर-अर्चन,
परिजन-पुरजन के शुभ-शंसन
”देवाधिदेव हे दया-सिंधु!“-
पूछै छै,- ”कैहनोॅ तात-बंधु?“

ऊ स्वप्न भयावह क्रूर-काल!
फूंकार भरै छै घोर व्याल।

दृढ़ चरण चिता पर चढ़लोॅ छै;
कीचड़ में काया पड़लोॅ छै।
हर दिशा अँधेरा सें भरलोॅ;
सूरज छै पाला में पड़लोॅ।
कानै छै गीदड़ औं सियार,
बिल्ली काटै पथ बार-बार।

थकलोॅ तन, मन में छै उदास;
ई महाप्रलय या घोर नाश!

”अयलोॅ छौं दूत अयोध्या सें
गुरू के संदेश,- ”बोलैने छौं।“
”सब ठीक-ठाक? हे भ्रात! कहोॅ,
जल्दी बोलो, नै मौन रहोॅ।

”कुछ अशुभ तेॅ नै? हम बहुत व्यग्र
शंकित हम, कुछ गड़बड़ समग्र!“

-हे वक्रतुंड! हे गणाध्यक्ष।
हे शुभकर्त्ता, तों विघ्न हरोॅ।
हम चलै छिहौं, तों विपद टरोॅ।“

सुमिरन करि चललोॅ भरत अग्र
सारथी संग रक्षक समग्र।

 -- -- -- --

व्याकुल मन, घोड़ा-सनी वेगवान
ले संग युगल तत्क्षण पयान।

जंगल-पहाड़ नद-नदी धार;
कंटकाकीर्ण पथ आर-पार।
बस जल्दी केना पहुँचना छै;
पल-पल अथाह, नै रूकना छै।

ज्यों-ज्यों वाहन के तेज चाल
त्यों-त्यों अपशकुन सम्मुख कराल।
कौवा के बोली- ‘काँव-काँव’।
चिल्हा-गि;ा सब- ‘खाँव-खाँव’।
गर्दभ, शृंगाल उल्टा बोलैं।
मालुम नै पुर में की होलै!

वन-उपवन, सरि सब श्रीविहीन,
आकाश-धरा बिल्कुल मलीन।

शुभ महल अशुभ, आनन मूर्च्छित;
नर-नारी दुसह दुख सें पूरित

पुरवासी आपस में मिलकें,
बिन बात-चीत करन्है चुपकें,
बाजार-हाट सुनसान नगर;
थकलोॅ-बुझलोॅ, झरकलोॅ डगर।

हिम्मत नै केकरहौ सें पुछियै;
हम अपनोॅ बात केना कहियै!

पत्थर ई प्रतिपल बढ़लोॅ छै;
चिंता के अजगर चढ़लोॅ छै।
अनहोनी केहनोॅ, के कहथौं!
होनी आखिर होय कें रहथौं।