संभ्रम / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’
सरयू तट कटलोॅ विकल रात,
फिर शृंगवेर अयलोॅ प्रभात।
राजा निषाद शंकित उर में;
सेना के साजै छै पुर में।
सब सजग हुव हथियार धरोॅ;
अरि अयलोॅ छौं; होशियार रहोॅ।
सुमरी-सुमरी कें राम नाम
धनुष-कवच सब माँगै छै।
बच्चा-बुतरू तक कें राजा,
सुतलोॅ उत्साह जगावै छै।
सब घाट-घाट पहरा परलोॅ
सब तीर, धनुष पर छै चढ़लोॅ।
उत्साह मरै या मारै कें,
शत्रु के शीश उतारै के।
”है भरत राम के भ्राता छै,
दुख-आर्त्त-दीन के त्राता छै;
हमरोॅ स्नेह के मूरत छै,
जेहनोॅ दिल, ओहनै सूरत छै।
”निश्छल, दृढ़ शांत, गंभीर, सदय,
कुल के भूषण, मार्त्तंड उदय;
वीरत्व प्राण में भरलोॅ छै,
उपकार यान पर चढ़लोॅ छै।“
-‘ई राम-वचन मन आवै छै
तब निषाद-राज भरमावै छै।
नर के विवेक नर के पुंजी;
मैत्री के छै मंत्र, शांति कुंजी।
धीरज कें धारण करना छै,
जों नै माने, तब लड़ना छै।
नै हर्ज ध्येय कें पूछै में,
सच बात भरत सें बूझै में।
मुनिवर वशिष्ठ के दिव्यानन
देखी कें गुहपति के चकित नयन
परिचय पाँती, तदुपरि प्रणाम-
करि कें बतलैलकैं अपन ग्राम।
श्रीराम-सनेही जानी कें,
ओकरोॅ हित-चिंतक मानी कें
आशीष मुनि उर सें देलकै;
गुह के समस्त चिंता लेलकै।
गुहपति के गला लगावै छै,
प्रीती मन में उमगावै छै।
प्रेमाश्रु के धार उमड़लोॅ छै
श्रीराम-भक्ति सें जुड़लोॅ छै।
सुरगण प्रसून बरसावै छै;
जन-वृन्द वहाँ हरसाबै छै।
-”प्रभु राम कहाँ, केॅना रूकलोॅ,
माँ जानकी विपद-बाधा सहलोॅ,
लखन कहोॅ, कुछ कहने छै?
ई कष्ट केना ऊ सहने छै?
-”वन मार्ग दुसह, पग नापै छै,
दुख हुनकोॅ, हमरोॅ तन कॉपै छै।
कोमल मन, कंचन काया छै,
निशिचर के घिरलोॅ माया छै।
-”आतप-झंझा, हिम-शीत प्रबल
सुख-सेज पलल छै, तन दुर्बल।
हे देव! नियति के केहन फेर!
हमरोॅ प्रभु पर पड़लोॅ छै अवेर!“
-कहतें-कहतें अवरूद्ध कंठ;
वर्षा सें भिंजलोॅ सगर मंठ।
पत्थर भी लोर बहावै छै,
वन में विषाद लहरावै छै।