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शिव-ताण्डव स्तुति / कनक लाल चौधरी ‘कणीक’

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जटा सरङ तक बढ़ाय, जें सुरसरि समैलकै
कंठ में गरल धरी, जें सर्प-हार लेलकै
डिम-डिमी डमरू बजाय जेॅ ताण्डवोॅ में लीन छै
वै शिवोॅ के नमन छै जे नृत्त में प्रवीण छै

जटा समैलोॅ गंग-धार जें धरा केॅ देलकै
शीश अर्ध-चन्द्र राखी जें सरङ सजैलकै
ललाट-पट धधक उठै लपट में आगिनी के सङ
नृत्त-रत किशोर चन्द्र शेखरोॅ केॅ छै नमन

धरा धरेद्र नन्दिनी के सङ जें प्रणय करै
दिशा दिगन्त भुदित मन लै नृत्त में भ्रमण करै
कृपा करै में जे सभै के अग्रगण्य धाम छै
मनो-विनोद-युत दिगम्बरोॅ केॅ मम प्रणाम छै

जटा तलक भुजङग के मणि खूब चकमकाय छै
कदम्ब-कुंकुभो के गन्ध खूब गमगमाय छै
मदान्ध सागर्हौं झुमी केॅ नृत्त जोगदान दै
विभर्तु-भूत-भर्तृहरि केॅ कोटि सत प्रणाम छै

ललाट-पट्टिका धनंजयोॅ के धकधकाय छै
निपीत पंचशायकोॅ के नृत्त झमझमाय छै
हौंसुली-स्वरूप-चन्द्र-शीश विद्यमान छै
हौ महाकपालिकोॅ केॅ कोटि सत प्रणाम छै

जटा बगल में चन्द्रज्योति नृत्त केॅ देखाय छै
मणि के जोति पैर के थिरक-थिरक बताय छै
गला के हार सर्प ने जटा निवद्य केलकै
हौ दृष्य देखि केॅ मनें-चकोर सुख भी पैलकै

कराल-भाल-पट्टिका धुकुर-धुकुर करी जरै
प्रचण्ड अग्नि में धनंजयोॅ के नृत्त ऊभरै
कुचाग्र लेनेॅ माँ शिवा शिवोॅ के सङ हूलसै
त्रिलोचनोॅ रति करै मे शिल्पिनी सें बिहँसै

नृत्त-ताण्डवोॅ लखै लेॅ मेघ जे ठहर गेलै
पूरे पहाड़ कन्दरा अन्हार में बिखर गेलै
सुरसरि के धारें तखनी जे कलल-छलल करै
कला निधान के कला धुरंधरी में ऊभरै

प्रपंच कालिम-प्रभा सें नील कमल हूलसै
वलम्वि कंठ कंदली भी नृत्त सङ झूलसै
स्मार, पुर, भवा, मखासुरोॅ सें जौनें त्राण दै
गजासुरोॅ के छेना केॅ कोटि सत प्रणाम छै

कला-कदम्ब-मंजरी अखर्व-मङगला सिनी
के रस मधुर पिवी-पिवी के नृत्त हुवै जिनी
स्मार, पुर, भवा भखासुरोॅ के जौनें जान लै
अंधका-गजासुरोॅ के नाशी केॅ प्रणाम छै

विजय तलास में भुङग अश्ववत् विचर रहै
अधर्मी सब के भष्म में त्रिनेत्र भी विफर रहै
धिमिन-धिमि-धिमिन मृदंगें मंगल-ध्वनि करै
शिवेॅ वही ध्वनि के सङ ताण्डवोॅ के नृत्त करै

शिरस्थ गंग-निर्झरी जटा-निकुंज में बहै
औ मर्धुनी के शशिकला सें मन्द जोति भी झरै
विमुक्त-वाम-लोचनां भी संग-संग रस भरै
वै शिव-शिवां ‘कणीक’ के आबी केॅ सब टा दुःख हरै