प्रीतम,
तोरे नांकी सुकुमार
सौम्य, शालीन आरो सुन्दर
शरद बीततैं, हेमन्त ऐलॅ छै
सच कहै छियौं पिया
लागै छै तोहीं ऐलॅ छॅ
आमॅ में आबेॅ लागेॅ लागलॅ छै
मंजर के कन्नी
नया-नया कोमल पत्ता
पिया! याद आबी गेलॅ छै
बसन्त पंचमी के ऊ दिन
बेलॅ के गाछी नीचेॅ में
तोरॅ चिट्ठी देबॅ
रहि-रहि मुस्कैबॅ
अबीर लैकेॅ हमरा गाली में घस्सी देबॅ
आय सब टा माथा में घूमै छै
प्रीतम!
तोरे नांकी सुकुमार
सौम्य, शालीन आरो सुन्दर
शरद बीततैं हेमन्त ऐलॅ छै
सच कहै छिहौं पिया
लागै छै तोहीं ऐलॅ छॅ
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कल रातीं
सपना में एक औघड़ देखलौं
सौंसे देहॅ में सिनूर पोतलॅ छेलै
कपारॅ पर त्रिपुंड लागलॅ
दोनों बड़ॅ-बड़ॅ आँख छेलै बन्द
ठोरॅ सें कुछकृू बुदबुदाबै छेलै
तप करतेॅ करतेॅ ओकरॅ देह हेने सुक्खी गेलॅ छेलै
जेनां काँटॅ
मतुर तहियो दमकै छेलै देह
कि हम्में ओकरा ठियाँ जाय लेली सजेॅ लागलियै
करेॅ लागलियै सिंगार कोन-कोन रं
-हेमन्त के हवा नें बहि-बहि
जोन ठोरॅ केॅ सुखाय देलेॅ रहै
ओकरा रसॅ में चुपड़ी-चुपड़ी
गुग्गुल अगरू के धूप हाथॅ में लै लेलियै
आरो जाब लागलियै
गोड़ बारी-बारी केॅ
कि तखनिये दिनकॅ गगललॅ कौआ
ई रात मंे भी गगली उठलै
बोलेॅ लागलै जोरॅ-जोरॅ सें
पूछला पर मुड़ी हिलाय केॅ ‘हों’ के उचारलकै सगुन
मतुर नीन टूटी गेलै
सोचै छियै,
ई हेमन्त आरो हेनॅ सपना?