भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अथ राग बसन्त / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:11, 28 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दादू दयाल |अनुवादक= |संग्रह=दादू ग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अथ राग बसन्त

(गायन समय प्रभात 3 से 6 तथा बसन्त ऋतु)

364. भजन भेद। मल्लिका मोद ताल

निर्मल नाम न लीयो जाइ, जाके भाग बड़े सोई फल खाइ॥टेक॥
मन माया मोह मद माते, कर्म कठिन ता माँहिं परे।
विषय विकार मान मन माँहीं, सकल मनोरथ स्वाद खरे॥1॥
काम-क्रोध ये काल कल्पना, मैं मैं मेरी अति अहंकार।
तृष्णा तृप्ति न माने कबहूँ, सदा कुसंगी पंच विकार॥2॥
अनेक जोध रहै रखवाले, दुर्लभ दूर फल अगम अपार।
जाके भाग खड़े सोई फल पावे, दादू दाता सिरजनहार॥3॥

365. विरह। धीमा ताल

तूं घर आवने म्हारे रे, हूँ जाउँ वारणे ताहरे रे॥टेक॥
रैन दिवस मूने निरखताँ जाये,
वेलो थई घर आवे रे वाहला आकुल थाये॥1॥
तिल तिल हूँ तो तारी वाटड़ी जोऊँ,
एने रे आँसूड़े वाहला मुखड़ो धोऊँ॥2॥
ताहरी दया करि घर आवे रे वाहला,
दादू तो ताहरो छे रे मा कर टाला॥3॥

366. करुणा विनती। तेवरा ताल

मोहन दुख दीरघ तूं निवार, मोहि सतावे बारंबार॥टेक॥
काम कठिन घट रहै माँहिं, ताथैं ज्ञान ध्यान दोउ उदय नाँहिं।
गति मति मोहन विकल मोर, ताथैं चित्त न आवे नाम तोर॥1॥
पांचों द्वन्द्वर देह पूरि, ताथैं सहज शील सत रहैं दूरि।
शुद्ध बुद्धि मेरी गई भाज, ताथैं तुम विसरे (हो) महाराज॥2॥
क्रोध न कबहूँ तजे संग, ताथैं भाव भजन का होइ भंग।
समझि न काई मन मंझारि, ताथैं चरण विमुख भये श्री मुरारि॥3॥
अन्तरयामी कर सहाइ, तेरो दीन दुखित भयो जन्म जाइ।
त्राहि-त्राहि प्रभु तूं दयाल, कहै दादू हरि कर सँभाल॥4॥

367. मन स्थिरार्थ विनती। एक ताल

मेरे मोहन मूरति राख मोहि, निश वासर गुण रमूँ तोहि॥टेक॥
मन मीन होइ ज्यों स्वाद खाइ, लालच लागो जल थैं जाइ।
मन हस्ती मातो अपार, काम अंध गज लहे न सार॥1॥
मन पतंग पावक परे, अग्नि न देखे ज्यों जरे।
मन मृगा ज्यों सुने नाद, प्राण तजे यूँ जाइ बाद॥2॥
मन मधुकर जैसे लुब्ध वास, कमल बँधावे होइ नास।
मनसा वाचा शरण तोर, दादू का राखो गोविन्द मोर॥3॥

368. उपदेश। एक ताल

बहुरि न कीजे कपट काम, हृदय जपिये राम नाम॥टेक॥
हरि पाखें नहिं कहूँ ठाम, पीव बिन खड़भड़ गाँव-गाँव।
तुम राखो जियरा अपनी माँम, अनत जिन जाय रहो विश्राम॥1॥
कपट काम नहिं कीजे हांम, रहु चरण कमल कहु राम नाम।
जब अंतरजामी रहै जांम, तब अक्षय पद जन दादू प्राम॥2॥

369. परिचय प्राप्ति। कड़डुक ताल

तहँ खेलूँ पीव सूँ नितही फाग, देख सखीरी मेरे भाग॥टेक॥
तहँ दिन-दिन अति आनन्द होइ, प्रेम पिलावे आप सोइ।
संगियन सेती रमूँ रास, तहँ पूजा-अरचा, चरण पास॥1॥
तहँ वचन अमोलक सब ही सार, तहँ बरते लीला अति अपार।
उमंग देह तब मेरे भाग, तिहिं तरुवर फल अमर लाग॥2॥
अलख देव कोई जाणे भेव, तहँ अलख देव की कीजे सेव।
दादू बलि-बलि बारंबार, तहँ आप निरंजन निराधार॥3॥

370. परिचय सुख वर्णन। षड्ताल

मोहन माली सहज समाना, कोई जाणे साधु सुजाना॥टेक॥
काया बाड़ी माँहीं माली, तहाँ रास बनाया।
सेवक सौं स्वामी खेलन को, आप दया कर आया॥1॥
बाहर-भीतर सर्व निरंतर, सब में रह्या समाई।
परकट गुप्त गुप्त पुनि परकट, अविगत लख्या न जाई॥2॥
ता माली की अकथ कहाणी, कहत कही नहिं आवे।
अगम अगोचर करत अनंदा दादू यह यश गावे॥3॥

371. परिचय। षड्ताल

मन मोहन मेरे मनहिं माँहिं, कीजे सेवा अति तहाँ॥टेक॥
तहँ पायो देव निरंजना, परकट भयो हरि इहिं तना।
नैनन हीं देखूँ अघाइ, प्रकट्यो है हरि मेरे भाइ॥1॥
मोहि कर नैनन की सैन देइ, प्राण मूँस हरि मोर लेइ।
तब उपजे मोकों इहैं बाणि, निज निरखत हूँ सारंग प्राणि॥2॥
अंकुर आदैं प्रकट्यो सोइ, बैन बाण ताथैं लागे मोहि।
शरणे दादू रह्यो जाइ, हरि चरण दिखावे आप आइ॥3॥

372. थकित निश्चल। मदन ताल

मतिवाले पंचूं प्रेम पूर, निमष न इत-उत जाँहिं दूर॥टेक॥
हरि रस माते दया दीन, राम रमत ह्वै रहे लीन।
उलट अपूठे भये थीर, अमृत धारा पीवहिं नीर॥1॥
सहज समाधि तज विकार, अविनाशी रस पीवहिं सार।
थकित भये मिल महल माँहिं, मनसा वाचा आन नाँहिं॥2॥
मन मतवाला राम रंग, मिल आसन बैठे एक संग।
सुस्थिर दादू एक अंग, प्राणनाथ तहँ परमानन्द॥3॥

॥इति राग बसन्त सम्पूर्ण॥