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घिरलोॅ आवै घोर घटाघन / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय

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घिरलोॅ आवै घोरर घटाघन
हमरोॅ पागल-पागल छै मन।

वन में नाँचै मोर भले ही
हसरोॅ मन के मोर नै नाँचै,
पपीहा प्रेम के पाती खोलै
हर प्रेमी लुग जाय केॅ बाँचै;
होड़ लगैलेॅ आँख मेघ सें
संकट में पड़लोॅ छै जीवन।
घिरलोॅ आवै घोर घटा-घन।

नील वनोॅ में नीला धरती
नभ में बादल करिया-कारोॅ,
बीचोॅ में बिजली रं बूली
कौने की लेॅ दैय हँकारोॅ;
भेद केना कोय बूझेॅ पारेॅ
गरजै भादो, चुप छै सावन।
घिरलोॅ आवै घोर घटाघन।