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अलग प्रजाति / प्रशांत विप्लवी

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मैं रोज़ देखता हूँ
भीड़ में
मनुष्य जाति की एक अलग प्रजाति
इनके हाव-भाव, वेश-भूषा
चिन्हित करते हैं
कि देश संवेदना-शून्य होकर
अब भी पाल रहे हैं ऐसी प्रजाति
बाज़ार के शोर-शराबे से डरने वाले ये लोग
इंतज़ार करते हैं देर तक
और फटी आँखों से निहारते हैं
ताजे फल-सब्जियां
रंगीन चमकने वाले कपडे
शीशे के अन्दर बंद पड़ी मिठाइयाँ
अद्भुत खिलौने
और भी न जाने क्या-क्या
गहन रात जब निस्तेज हो जाता है बाज़ार
ये लोग आहिस्ते से निकल आते हैं
क्लांत बनिकों के पास उनके तेवर को भांपते हुए
हर अवशिष्ट पर एक चमकती निगाह डालकर
पूछते हैं भाव...
फिर एक गहरी चुप्पी
उन्हें पता है बनिकों के खीझ से टूटता है भाव
उनके चेहरे के कातर भाव
और तोडना चाहते हैं बाज़ार का भाव
टटोलकर निकाला हुआ एक मुड़ा-तुड़ा नोट
जिसकी हालत उतनी ही जर्जर है
जितनी इस प्रजाति का

हर रोज़ मंहगाई
काट लेती है एक हिस्सा
इनके जीवन के अमूल्य ज़रूरतों से
बाज़ार के भीड़ और भागते लोगों के हुजूम से
इन्हें अचंभा होता है...
मंहगाई घटी है या सचमुच बढ़ी है
फैलते बाज़ार पर इनका दीर्घनिश्वास
स्पर्श करता है मेरा देह
मैं मंहगाई से झुलस उठता हूँ
याचक से भी असंभावित भविष्य लिए
जी रहे ये लोग
जिनके चूल्हे जलते हैं
कड़ाही चढ़ती है
बच्चे पढ़ते हैं
बेटियाँ जन्म लेती है
पाप और पुण्य के फर्क को बेहतर महसूस करते हुए
जीवित है ये प्रजाति