भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमने दुर्गा बनते देखा / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:12, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह=अम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कई बार
घर में अम्मा को
हमने दुर्गा बनते देखा

यों तो घर के
हर निर्णय में
उनकी सहमति ही रहती थी
बड़े बड़े झगड़ों में भी वो
अक्सर ही बस चुप रहती थीं
बच्चों के
भविष्य को लेकर
हमने उन्हें बिफरते देखा

वत्सलता तो
ऐसी जब तब
घंटों बछिया को दुलरायें
कभी कभी तो उसे गाय का
पूरा पूरा दूध पिलायें
बैल कभी
उद्दंड हुए तो
उनको लट्ठ पकड़ते देखा
कई बार
घर में अम्मा को
हमने दुर्गा बनते देखा।