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समन्दर की नियति / अर्चना कुमारी

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सूरज घूरता क्यों है
रात के पयताने खड़ा होकर
बीते समय की फूलों वाली चादर में
खिल उठते हैं नागफनी के काँटे
गाढी नींद पतली होकर
बह जाती है पाँव से
आँख दौड़ती है
सपनों की अगलगी में
खुद को बचाते हुए
कहाँ बचा कुछ तुम्हारे जाने के बाद
एक पोटली सी बँध रही है
शिकन की शिकवों की
कभी आँखों में झाँक नहीं पाए
लफ्जों को पढ नहीं पाए
कौन चढता-उतरता सीढियाँ
खुले हाथों को गुनाह करार किया
सारे सच झुठलाए तुमने
मोहब्बतों को नाम देकर साजिशों का
फूँक दिया वजूद मेरा
गली गली ुड़ाई राख मेरी
किरदार किसने पढा है किसका
जल गया था खुदा
मेरे सजदे की आखिरी दुआ में
फैलती आग हर शय
भटकती रुह कोई
मत हवा दे अब दरारों को
ढूँढ रहा है समय एक ठिकाना
जहाँ गलत समझ कर
ठुकरा गया घोंसला परिंदा
नदियाँ पीकर
खारा रहा समन्दर!!