पश्चाताप / शैलेन्द्र चौहान
जाओ पेड़ के पास
जाकर कहो
सही क्या है
जाओ नदी के पास
जल से कहो
अपने मन का भय
पत्थर की तराशी मूर्तियाँ
रखी हैं मंदिरों में
उनके सामने
करो आत्मस्वीकार
यद्यपि तुम अपने-जैसे ही
किसी व्यक्ति से
कहना चाहते हो वह
पर तुम्हें भय है
किसी और से न कह दे
वह तुम्हारी बात
तुम्हें जाना ही होगा
शरण में देवताओं की
स्वीकारने ग़लती अपनी
तुम विवश हो
भीरु कहलाने को।
माने गए हैं वे
एक
कबूतर की तरह
तड़पता-फड़फड़ाता
गिरा वह गली में
छत से ठाँय...
बेधती हुई सीना
थ्री-नॉट-थ्री रायफल से
निकली गोली
वह दंगाई नहीं
तमाशबीन था
भरा-पूरा जिस्म, क़द्दावर काठी
आँखों में तैरते सपने लिए
चला गया, यद्यपि
नहीं जाना चाहता था वह।
दो
हस्पताल जाने तक
यक़ीन था उसे
नहीं मरेगा
बच जाएगा क्योंकि वह
नहीं था कुसूरवार
भतीजी की चिंता में परेशान
चल पड़ा था
विद्यामंदिर की तरफ़
नहीं पहुँच सका
घंटे-भर लहू बहने के बाद
पहुँचाया गया हस्पताल
साम्प्रदायिक नहीं था वह
फिर भी मरा
पुलिस की गोली से।
तीन
उमंग और खुशी से
जीवन में चाहता था
भरना चमकदार
आकर्षक रंग
प्रियतमा सुंदर उसकी
छिड़कती रही उस पर
अपनी जान
ब्याह दी गई
सजातीय, उच्च वर्ग के
वर के साथ
सपनों को साकार
करने के लिए
कर दिए एक दिन-रात
बेफ़िक्र था इस
कार्य-व्यापार से वह
तड़पता-छटपटाता रह गया
पाकर सूचना शुभ
सपने टूटने की
अनगिनत घटनाएँ
क़िस्से, पुरा-कथाएँ
गवाह है इतिहास
गवाह हैं चाँद-सितारे
गवाह हैं धर्म-ग्रंथ
गवाह हैं कवि
हादसे यूँ ही
घटते रहे हैं अक्सर
निर्दोष, भोले-भाले
अव्यवहारिक
व्यक्तियों के साथ
मारे गए हैं सदैव वे।