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नीम का पेड़ / शैलेन्द्र चौहान
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आज
जब
नीम का पेड़ ही
उकठ गया
उसकी पत्तियों क कड़वाहट
और उसके अहसास को
कहाँ दफ़न करूँ?
तब!
किसी ने कहा होता
या
तोड़ ही दिया होता
उन आँखों का
उपेक्षित मोह
किसी श्याम की बंसी के
अस्फुट स्वर
लहराए होते
विरह की व्यथा का
अहसास
न हुआ होता
तो कम-से-कम आज
सूखते तने पर
दो बूँद
आँसू बहा लेता
सारे संवेदनों को
सहज ही जोड़ लेता
नियति से
लेकिन शत-प्रतिशत तेरी कड़वाहट
आज भी
मेरी रग-रग में समाई हुई है
नहीं
तू किसी और के लिए
मर गया होगा
मेरे लिए तो
अब भी जिंदा है।