भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोना के धरती / भुवनेश्वर सिंह भुवन
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:30, 22 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भुवनेश्वर सिंह भुवन |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भाय रे भाय! सुनी लहीं हमरॅ बात,
सुनिहें ध्यान लगाय रे!
सोना के धरती लूटल जाय!
जे धरती पर गंगा-जमुना,
सबके दुक्ख मेटाव रे,
जे धरती के भाल हिमालय,
लाखों मुकुट लजाय रे,
दुश्मन के छाती दहलाय।
जे धरती के माटी सोनॅ,
जहाँ पसीना अन्न रे,
जहाँ कमाबै भूखा-नंगा,
मोटकाँ मौज उड़ाय रे,
परदेशी लुटेरा ललचाय।
जबसें भेलै आपनॅ राजा,
रहलाँ आस लगाय रे,
सालों-साल अकालें बितलै,
सौंसे देश पिड़ाय रे,
सुरसा रं बेकारी बढ़लॅ जाय।
भाय रे भाय! सुनिहें ध्यान लगाय रे।
सोना के धरती लूटल जाय!