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संशय / भुवनेश्वर सिंह भुवन

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यै सृष्टि के की उद्देश्य?
सुरुज, चनरमा, धरती,
आकाश, हवा, पानी, नदी, समुद्र।
आगिन, बर्फ, कैहने भेलै?
कोय बनैलकै की आपन्हैं भेलै?
जों बनैलकै, तेॅ कथीलेॅ बनैलकै?
बनबै लेॅ कोनों बिगड़ता रहै?
जे मॅन, से चीज बनाय लेॅ?
शो केशॅ में सजाय लेॅ?
झुट्ठे बड़ाय के पुल बन्हाव लेॅ?
दुनियाँ से पुजाय लेॅ?

निक्कॅ अदलाहा सच-झूठ,
सबके पीछूँ बड़का तर्क,
दिन-राती के फर्क।

एकॅ के सुरुज-
दोसरा के चनरमाँ, तारा,
एक नदी के धारा,
दोसरॅ किनारा,
सरबसर दोनों सम।
केकर्हौ सें
नै कोय बेसी, नै कोय कम।

केकरा मानिबै?
केकरा नै मानिबै?
नै मानला सें खतरा,
कौन ठिकानॅ होबॅ कर?
देखनिहारहौं नै देख पारलेॅ हुअ?
पींछू बड़का चक्कर,
मानला पर-
नै कोनो फेर,
सरगॅ में नै कोनों देर,
नहियों रहतें नै कोय नुकसान,
प्रेमी के हारला में कौन अपमान?
तोहीं कहॅ ई कोनों बात भेलै?
दिन की रात भेलै?
त्रिशंकू के जात भेलै
-कि विष्णु के छाती पर
भिरगू के लात भेलै?

लेकिन,
ई संसार, कुहासा के देबार,
कन्हौ नै लागै ठहार,
जन्है जा तन्है अन्हार।
धरती सें सटलॅ आकाश,
नै दूर, नै पास-
पिछुवैने भागथौन, भागने रगेदथौन,
नै कन्हौ शुरू, नै अन्त,
छगुनथैं मरलै सब सन्त।

जेना गल्ला के मफलर-
सपनां में फाँसी के रस्सी।
जागला के हँस्सी।
जेना चुनाबॅ के भोटर-

दौड़े देखथैं मोटर, हेलीकोप्टर,
दै सूना में गारी,
चुनलॅ-बिछलॅ भारी-भारी,
घोर घृणा सें काँपै,
सबकेॅ एक्के तरजुआ सें नापै।

झाँपलॅ हड़िया में
पानी सन खौले,
बरसा बिन-
जरला धानॅ सन मौलै,
मगर काम करै वहेॅ
ने मालिकें कहै
जे नेताँ चाहै।

राजपाट या लाठी के बलॅ पर,
की जाती-पाँती के नामॅ पर,
कागजॅ के टु-टकिया पर,
कि देवी-देवता के किरिया पर।

ठीक वहीना जेना लोगे
खोजी-खोजी मारै साँप
सालो मर।
मगर नाग पंचमी दिन-
ओकरा पुजबे करै-
दूध-लावा भोग देबे करै।

फेरु साल भर-
बिन दीया नै बूलै।
लेकिन, तय्यो सपबाँ काटै,
बिषहरी थान दौड़ै,
नीर पीयै, कहरै, मरै।
पछताबै खूब आदमी,
लेकिन समय चुकला पर-
गाड़ी छुटला पर-
माथॅ-कपार धूनै,
मने-मन गूनै।

जेना जङलॅ में भुतलैलॅ,
मू कान लटकलॅ,
करेॅ तेॅ की करेॅ?
जाय तेॅ कहाँ जाय?
केना जाय?

खनु अपना पर गोस्सा,
खनु देवता पेॅ,
बैमानॅ-घुसखोरॅ के
मूँ नोचै लेॅ तैयार
मतुर लाचार।
जेना गीदरें जाड़ा केॅ गरियाबै,
”दिन भर मान नै खान्हलौं“-पछताबै
रात भर खेतॅ के माटी नोचै-
”भिन्नी मान जरूर खानबै“-सोचै
लेकिन बिहान होथैं-
पेटॅ के धन्धा,
जन्न देखॅ तन्है ब्याधा के फन्दा,
गड़ेरिया के कुत्ता,
भूखें जराबे अँतड़ी,
भूली जाय ज्ञानॅ के पोटरी।

दिन-राती के यह करम,
नै छूटेॅ पारलै भरम।
जेकरा नै देख-बूझ पारॅ
ओकरा कत्तेॅ खोजभौ?
कस्तूरी मृग बनसौ,
बौवाय मरभौ।

हॅर-कोदारॅ सें खेत उखड़ै छै
लोगें जोतै छै कोड़ै छै,
पथरॅ पर हरें काम नै कर,
वहाँ चाहिबॅ बारुद डेनामाइट,
लोगें लगाबै छै,
पहाड़ उड़ाबै छै।

तों हवा में हॅर जोतने जा,
बीथा छिटने जा,
कोन ठिकानॅ फसिल लागिये जाय?
नहियों लागलें की नोकसान?
मतुर फसलॅ के पत्ता-पत्ता-

फूलॅ-फलॅ में
किसानॅ के प्राण बसै छै।

फूल फूलै छै मॅन नाचै छै,
धान मरॅ छै, किसान कानै छै,
जेना ओकरॅ पीसलें पूत मरलॅ रह,
जेना जुआन बेटी बेबा भेॅ गेलॅ रहे।

जें एकरा नै बूझै छै,
वें कागजॅ पर स्वर्ग सजाबै छै,
आपनॅ गद्दी के निशाँ में
मातें छै, बौखै छै,
दुनियाँ के आदर्श केॅ
चक्की में पीसै छै।
के जानेॅ-
आरो कत्तेॅ पीसतै?