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चलना सीखा ही है अभी, कैसे वह सँभल पाएगा / पल्लवी मिश्रा

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चलना सीखा ही है अभी, कैसे वह सँभल पाएगा,
संगमरमर की ज़मीं पर, बच्चा है, फिसल जाएगा।

बाजी-ए-शतरंज में है एक कोना ऐसा भी
शह मिली तो मात होगी मोहरा न बदल पाएगा।

ख़्वाहिशें करना मगर इतनी भी करना न ऐ दिल
मुख्तसर सी ज़िन्दगी में हर अरमाँ न निकल पाएगा।

‘कल’ हो बेहतर इसलिए हर ‘आज’ को गँवा दिया,
सिलसिला चलता रहा तो कभी नहीं ‘कल’ आएगा।

हैं बहुत नादान ऊबकर हर चीज़ बदलते रहते हैं,
आईना बदलने से चेहरा न बदल पाएगा।

यादें जो नश्तर चुभो दें, भूल जाना ही बेहतर,
राख को छेड़ा न कीजिए, हाथ ही जल जाएगा।