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चौथोॅ सर्ग / अंगेश कर्ण / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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चारो दिश ही अंधियाला छै
गुजगुज रात अमश्या केरोॅ,
कर्णोॅ के आँखी आ मन पर
कत्तेॅ यादें दै छै फेरोॅ।

द्वन्द्व-युद्ध ललकारै वक्त्ी
कृपाचार्य के बात ऊ छकछक,
अंगदेश के राजा होवोॅ
मुकुट-पोशाकोॅ में ऊ लकदक।

गूंजै कानोॅ में कर्णोॅ के
जय अंगेश, अंग के राजा
बाजै छै तुरही, ततरू सें
लै केॅ कै रं गाजा-बाजा।

लगलै यहेॅ कर्ण कॅे-ऊ छै
दुर्योधन के सम्मुख खाड़ोॅ,
होय उठलोॅ छै पानी कत्तेॅ
आय लहू सें ज्यादा गाढ़ोॅ।

फेनू याद कर्ण केॅ ऐलै
दुर्योधन के वैष्णव जग लेॅ,
देश-देश केॅ जीती ऐवोॅ
सब पर विजय-विजय केॅ पैलेॅ।

मिथिला, बंग, मगध, सब्भे केॅ
धूल चटैनें आगू बढ़लै,
जे आगू में खाड़ोॅ भेलै
कर्ण हस्ति रं वै पर चढ़लै।

उत्तर, पूरब, पश्चिम, दक्खिन
सबटा कर्णोॅ के मुट्ठी में,
लौंग, सुपारी, पान, इलायची
बंद रहेॅ जों पनबट्टी में।

आँखी में फेनू सें उठलै
जरासंघ सें घोर युद्ध ऊ,
हारी जरासंघ के डरबोॅ
नरमैलै जाय तुरत क्रुद्ध ऊ।

अजब-अजब के दृश्य घुमै छै
कर्णोॅ के आँखी में सरसर,
एक दृश्य हेनोॅ भी उठलै
लगलोॅ छै अति भव्य स्वयंवर।

बड़ोॅ-बड़ोॅ राजा ऐलोॅ छै
किस्मत अपनोॅ अजमावै लेॅ,
द्रुपद राज के राजकुमारी
केॅ विद्याधन सें पावै लेॅ।

धनुष-वाण कौशल में राजा
मात खाय, लौटै, बैठै छे,
सभा-भीड़ में लक्ष्य कला लेॅ
कर्णोॅ के मन चुप ऐंठै छै।

कर्ण उठै छै लक्ष्य भेद लेॅ
राजकुमारी बोली पड़लै,
”वहेॅ कुलोॅ के...।“ वंश-बात ठो
कर्ण हृदय में सीधे गड़लै।

उबली पड़लै मोून कर्ण के
पर चुप रहलै कुछ सोची केॅ
गुस्सा सबटा राखी लेलकै
अपने मन में ही कोची केॅ।

क्षण-क्षण बदलै दृश्य सभे ठो
दुर्योधन के फिसली गिरबोॅ,
‘अंधरा के बेटा अंधरा ही’
वचन-तीर सें छाती चिरबोॅ।

एक तीर बोली के छुटलै
नींव पड़ी गेलै युद्धोॅ के,
जगह-जगह पर वैर बनैलेॅ
सीमा नै कांही क्रोद्धोॅ के।

पाण्डव केॅ वनवास भाग्य में
वही क्रोध सें लिखलोॅ गेलै,
उल्टा-सीधा-आड़ोॅ-तिरछोॅ
क्रोध जना जी चाहै, खेलै।

सब बातोॅ केॅ याद करै छै
कर्ण अकेले ओघरैलोॅ रं,
मन में आँधी ठो उफनावै
लेकिन चेहरा मुरझैलोॅ रं।

चाहै छै सब बात भुलाबौं
लेकिन सब उपटी आबै छै,
कत्तो दूर भगावै वैनें
फेनू सब झपटी आबै छै।

”जूआ पर पाण्डव के ऐबोॅ
पांचाली तक हारी जैबोॅ,
अपनोॅ सुख के खातिर सबटा
इज्जत तक केॅ दाँव लगैबोॅ।“

”जे कुछ होलै घोर पाप ही
के कुछ बोलेॅ हार-जीत पर,
ठीक-गलत कुछ कहबोॅ मुश्किल
बहस कठिन छै वैर-प्रीत पर।“

”दुःशासन के कर्म पाप तेॅ
कहाँ ठीक छेलै ई कहबोॅ,
‘अंधरा के बेटा अंधरा ही’
थमतै बनै नै मन के दुखबोॅ।“

”स्वयंवर में हमरै ही की रं
कहलोॅ गेलोॅ छेलै धिपलोॅ,
कोय कभी की भूलेॅ पारेॅ
केकरा सें ई बातें छिपलोॅ?“

संघरी-संघरी सबटा गुस्सा
नद्दी मंे बोहोॅ रं उमड़ै,
आरो सरंगोॅ मंे बिजली संग
घृणा-द्वेष के बादल घुमड़ेॅ।

कर्ण मने मन सबटा सोचै
”हाय महाभारत तेॅ होनै छै,
पाप हुएॅ जन्नें भी दिश सें
फल तेॅ सब्भे केॅ ढोनै छै।“

”दोनों दिश सें समर-भेद के
तैयारी भीतरे भीतर छै,
ऊपर सें सुखलोॅ-सुखलोॅ रं
खून लहू सें भिंगलॉे तर छै।“

”के जानेॅ, की केकरोॅ मन में
हमरोॅ मन तेॅ एतनै जानै,
दुर्योधन लेॅ बस लड़ना छै
दुर्योधन केॅ ही पहचानै।“

”हमरा नै यश चाही कोनो
राजसिंहासन, पदवी या पद,
जेकरा पाबै लेॅ दोनों दिश
दोनों सेना मन सें गदगद।“

”कत्ती कोय कहौ, कुछ बोलै
अपनोॅ न्याय-नीति रक्खी केॅ,
साधू की कहलैतै ऊ सब
किसिम-किसिम के रस चक्खी के।“

”सब हड़पै लेॅ सिंहासन कॅ
भीतरे-भीतर रोटी सेकै,
भीतरे-भीतर रोटी सेकै,
सबके मोॅन बराबर पापी
कोय कथी लेॅ पत्थर फेकै।“

”सिंहासन ही ऊ चुम्बक रं
जे कौरव-पाण्डव केॅ खीचै,
सब जानै छै कोॅन बात लेॅ
कीचड़ कैन्हें मिली उलीचै।“

”हो हल्ला में कहीं न्याय नै
कहीं धर्म नै, कहीं दया नै,
सब अन्याये पर टिकलोॅ छै
शील कहूँ मैं, कोय हया नै।“

”जे, जन्नें भाषण धर्मोॅ के
बै में अपने हित छै छुपलोॅ,
परहित के तेॅ बात वहाँ पर
सब्भे टा ही निपलोॅ-पोतलोॅ।“

”समझौता कोय्यो नै चाहै
दोनों छै जिद्दे पर अड़लोॅ,
यै मानै में कोय्यो कर्म नै
एक एको पर आगू बढ़लोॅ।“

”हेना में के रोकेॅ रण केॅ
सबकेॅ हूब लड़ै के चढ़लोॅ,
केकरा की मिलना छै यै सें?
केकरा लेॅ रत्नासन गड़लोॅ?“

”दू के, दस के इच्छै पर ही
लाख-लाख के जानो जैतै,
आखिर में, ऊ दूनो दिस ठो
नै सोचेॅ पारौं-की पैतै।“

”हम्मू छी असमर्थ बड़ा ही
सैनिक तेॅ सेनापति केरोॅ,
राजा केरोॅ, देशोॅ केरोॅ
जन्नें चाहोॅ, हुन्नें फेरोॅ।“

”आरो कुछ दिन बाकी बचलोॅ
नरसंहारोॅ के खेला में,
जानेॅ के बचतै, नै बचतै
महाप्रलय के ई मेला में!“

”लेकिन इखनी सें चिन्ता की
रण में जे होतै, से होतै,
सेना लेॅ नै उचित कहीं सें
मन केॅ वै चिन्ता में गोतै।“

ई भावोॅ के उठथैं उठलै
कर्ण सेज सें सूर्ये नाँखी,
चिन्ता के सब बोझ वहेॅ रं
तकिये के नीचू में राखी।