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छठा सर्ग / अंगेश कर्ण / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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संझा केॅ डूबै में अभियो
कुछ वक्ती के देरी छेलै,
कुन्ती के मन में सै भय ठो
शंका साथें जाय समैलै।

”नै जानौं, रण में की होतै
ठाढ़ोॅ केकरोॅ मृत्यु निकट छै,
केकरोॅ ऊपर प्रलयकाल के
मंडराबै भारी संकट छै।“

”की गिरतै अर्जुन के देही
आ कर्णे ही पहिलें गिरतै,
ठाढ़ोॅ छै मृत्यु मुँह खोली
के जानेॅ के पहिलें मरतै।“

कुन्ती के मुँह पीरोॅ देखी
टुस-टुस लाल उतरलै सूरज,
धरती के कोना-कोना तक
लगै सुनहलोॅ, सोना के रज।

सोना केरोॅ राज सरोवर
सोना के जल, स्वर्ण कमलदल,
वै पर हौले-हौले सूरज
ऐलै लै आँखी केॅ छलछल।

कुच्छू पल लेॅ चुप्पे रहलै
फेनू यहॅ कहलकै चिंतित,
”तोहें प्राण स्वामिनी हमरोॅ
तहियो सुख-किरणोॅ सें वंचित।“

”सब्भे विधि रोॅ ही विधान सें
बंधलोॅ नाँचै कठपुतली रं,
ऊ भी मिटै जे चमकी आबै
रात अन्हरिया में बिजली रं।“

”प्राण दुलारी, तोरे खातिर
हम्में गेलौं कर्णोॅ के लुग,
सौ शंका के कलयुग बीचें
आशा केरोॅ लै केॅ सतयुग।“

”नै निर्दोष पाण्डवे ही छै
लेकिन दोष कर्ण के पहिलें,
बड़ोॅ होय के गुण नै वै में
की होतै कुछुवो भी कहिलें।“

”मन के बात बतैलौ की नै
रहस जनम के खोली कहलौं,
आय तलुक जे जग के आगू
बोलै में बस चुप्पे रहलौं।“

”लेकिन कर्ण की घामै वाला
कुछुवो वै पर असर नै होलै,
ऊ तेॅ दुर्योधन के मन रं
मर्कट नाँखी हरदम डोलै।।“

”मति मरलोॅ छै कर्णे केरोॅ
पिता बुझै नै रक्त हितेषी,
संरक्षक सें सखा-सहोदर
दुर्योधन केॅ बूझै बेसी।“

”हारी-थकी केॅ लौटी ऐलां
मतर अभी भी आशा बाँकी,
पर तोरा पर ई टिकलोॅ छै
जे कहियौं, नै दीयौ नाँकी।“

”कर्ण मनोॅ केॅ के नै जानै
करुणा पर ऊ कत्तेॅ कातर,
तोरोॅ बात अलग ही होथौं
फेनू माय छिकौ तों वै पर।“

”तोरोॅ बात उठैतै नै वें
खोचोॅ भरी केॅ तोहें ऐवा,
हमरोॅ तों नै बात उठैयौ
कर्णोॅ लुग भोरे ही जैवा।“

”हमरे नाँखी तेज प्रखर ऊ
मैये नाँखी शांतो शीतल,
सूर्यवंश के, चन्द्रवंश के
एक धजा ऊ, शोभै सुरतल।“

”जखनी ओकरोॅ पौरुष जागै
तखनी वै में हम्मी जागौं,
आरो वै में तोंही जखनी
धर्मव्रती ऊ कोमल लागौं।“

”ठीक भोररियां जखनी कर्णें
हमरोॅ पूजा-ध्यान करै छै,
तखनी वै में पितकुलोॅ के
मातृकुलोॅ के भाव झरै छै।“

”ठीक यही वक्ती में तोहें
पहुँची जइयोॅ व्यथा-उथा लै,
नै खाली भावी विध्वंशे
कर्णोॅ केरोॅ जन्म कथा लै।“

”ऊ निश्चय पिघली केॅ रहतै
बरफ छिकै ऊ पत्थर ठो नै,
तापोॅ सें जे रं बरफो
पिघली ऐतौं कर्णे होनै।“

अतना बोली सूर्य वहाँ सें
कल्हे-कल्हे लौटी गेलै,
वै ठां गुमसुम कुन्ती रं ही
चारो ठां खामोशी छेलै।

आखिर हिरदय कड़ा करी केॅ
मन रोॅ सब संशय केॅ ठेली,
एक नया आशा केॅ लेली
राजभवन कॅे लौटी ऐली।

तखनी कुन्ती केरोॅ मन में
स्नेह समुन्दर रं उमड़ै,
लेकिन कुछ शंकाओ केरोॅ
मन में बिजली-बादल घुमड़ै।