भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाग / जयप्रकाश मानस

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:39, 17 अप्रैल 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस समय

नहीं दीख रहा कछुए का श्रीमुख

मेंढक भी थक चुके टर्रा-टर्रा कर

नावें थिरक गयी हैं डाल लंगर

सपनों के लिए चली गईं मछलियाँ

गहराइयों में

सीप भी अचल आँखें खोले तटों में

घुस गए हैं केंचुए गीली मिट्टियों में

समुद्र की समूची देह पर

जागती है चांदनी

चांद नहीं है समुद्र में

लेकिन देखने वाले

देख ही लेते हैं

दाग़ सिर्फ़ दाग़