भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सरद / पतझड़ / श्रीउमेश
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:52, 2 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीउमेश |अनुवादक= |संग्रह=पतझड़ /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आबै नै बरसा पानी छै, सुखलै सब मंगर-ओहरान।
खेतोॅ में लहरी रहलोॅ छै, परबैया सें फुटलोॅ धान॥
अपराजिता, कमल, उड़हुल, तग्गड़, कनेल, छै हरि सिहरार।
चिरामिरा, सीरीस, केबड़ा, छै गुलाब के फूल अपार॥
यै सब फूलोॅ सें धरतीं करलै छै आपनों साज सिंगार।
गंधराज-बैजंत्री के बनलोॅ छै सुन्दर गिरमल हार॥
धानी साड़ी पीन्ही केॅ धरती केहनोॅ मुसकाब छै।
लागै छै गिरहस्थोॅ केॅ वें अपना पास बोलाबै छै॥
सरद रितू के चाँद-चाँदनी, दोनों कतेॅ निर्मल छै।
मूर्तिमान रति-कामदेव के, बिम्ब गिलच्छन निश्छल छेॅ॥
डारी पर-टहनों पर देखोॅ, मधमाछी के छत्ता पर।
सरद-रितु के धाध इंजोरिया, हमरा पत्ता-पत्ता पर॥
सुनै छियै सरदै में मचलोॅ छेलै ब्रजमंडल में रास।
कुंज-कुंज में कुंज बिहारी-राधा के ऊ हास-विलास॥