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ट्रेन में / हरीशचन्द्र पाण्डे

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वह चलती ट्रेन में चढ़ा था

हम पहले से ही चार में पाँच बैठे थे
वह धच्च से हमारे बीच बैठ गया

बग़लवाला सकपका गया
मैं उसकी तमीज़ देखता रह गया

पर वो कहीं और देखता रहा अनजान

सिर के दोनों ओर ढुलके उसके बाल
दससों उँगलियों में कंघी के दाँतों सा घुसा-घुसा व्यवस्थित करता
कमीज़ का एक बटन छोड़ सारे खोले
बाँहें मुड़ीं एक कम एक अधिक
और टाँगे पसारे भरपूर दायें-बायें
यानी मेरा अचाहत का भरपूर सामान

अब मेरे चाहने न चाहने से क्या...समय कैसा है

गले से एक ताबीज झाँक रहा है उसके
दायें-बायें हिलोरे मारता उसके सीने में
दिल को ठकठकाता

क्या पता इकलौता हो अपने माँ-बाप का
हर नज़र हर बला से बचे ये मन्नत की हो
क्या पता बाँह में बँधा हो गंडा
करधनी में हो कोई टोटका
जितना मैं नहीं चाहता, उतना ही चाहा गया हो उसे

हमारी नफ़रत के बरअक्स
कितना ज़रूरी और प्यारा है वह किसी के लिए

वह जो आउटर पर ही उतर गया है।