Last modified on 5 जुलाई 2016, at 04:47

तमीज़ / हरीशचन्द्र पाण्डे

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:47, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जेब से निकली वह क्रीजदार रूमाल
बार-बार मुँह का जूठा पोंछ रही है
मगर गन्दी नहीं हो पा रही है

दिखने लायक जूठा कहीं था भी नहीं

बचा-बचा बीन-बीनकर खा रहा था इतने सलीके से वह
कि जूठा होना ही नहीं था

चेहरा भी उसका दर्पण रहा

उसी में देखा मैंने
जूठा मेरे चेहरे पर लगा थाकृ