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अप्प दीपो भव / सुजाता 2 / कुमार रवींद्र
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दिन सुजाता के अधूरे हो गये
एक शून्य व्यापा
हर काम में
लोप हुईं इच्छाएँ
आँखें भी पथराईं
जो थीं
रतिपत्र-लिखीं कविताएँ
भोग सारे कनखजूरे हो गये
सोनजुही देह हुई
जंगल ज्यों
जले-हुए बाँसों का
सोच नहीं पाती वह
क्या करे
साँसों में चुभी हुई फाँसों का
स्वप्न सारे सड़े घूरे हो गये
बुझे सभी
घर-आँगन के सूरज
और फूल मुरझाये
अचरज जो रचते थे
पूनो के चाँद -
वही बौराये
आम्र-कदली वन धतूरे हो गये