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कर्मसेन से युद्ध / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

सेना मांह परो तब शोरा। चारिहु ओर कटक अरिजोरा॥
जो जंहवा सो उठे संभारी। क्षत्रिन वांध्यो अस्त्र संभारी॥
एक एक कंह कहत पुकारी। पहिरि सनाह कीन असवारी॥
छुटहिं तुपक वान चहुं फेरा। दुहु दिशि क्षत्रिन कीन अरेरा॥
गजीहें गोला घन घहराई। पर्वत कूटहिं तरु महराई॥

विश्राम:-

काहु न कंहुहिं संभारेऊ, घनी अंधेरी रात।
मेघ वुन्द जनु वरिसे, वान परे तेहि मांत॥67॥

चौपाई:-

यहि अन्तर पुनि मां भिनुसारा। क्षत्रिय ताकि परस्पर मारा॥
पुनि दुह कटक एक भे गयऊ। तब अति महा मारण भयऊ॥
मारहिं साँगी लगि होई पारा। परहिं वीर हरिनाम उचारा॥
झारहि वीर खांड तरुवारी। फरसा सांस गरुअ अतिभारी॥
धाय कतहुं केहु वांस पंवारा। कोह कोउन गहि मार कटारा॥

विश्राम:-

करिवर झारहिं कर गहि, वाजन वाजु अघोर।
जुझहिं पर्वत वासिजन, सेना करहिं वटोर॥68॥

चौपाई:-

मनमोहन मन अधिक उछाहा। क्षत्रिय लरहिं सुमट सब तांहा॥
कत जूझे कत घायल परहीं। मास मारु धरु जन सब करहीं॥
घायल घाव गिरहिं असवारा। जीनलिये कत फिरहिं तुरवारा॥
देखा कुंअर जूझि वहु गयऊ। तबहिं महावल सबरे लयऊ॥
जँहवा अरिदल बहुत बटोरा। तहँवा कुंअर घवायो घोरा॥

विश्राम:-

खबरि कतेको मरि गये, बहुते चले पराय।
रामकला परगट भई, खेदि खेदि जनु खाय॥69॥

चौपाई:-

दृढ करि कुंअर लरत फिरिताहाँ। लरत सुमट सुर संगी जांहा॥
जापर भीर परै जब जाई। झपीट कुंअर तंह करे लराई॥
बहुते वीर कुंअर तंह मारे। लोटत पुहुमी परु विकरारे॥
जेते वीर कुंअर कर मरहीं। ले ले सुरकन्या तेहि धरहीं॥
रुधिर कीच पैदल कतखसहीं। करहि वहुत वल हय रथ धंसहीं॥

विश्राम:-

हाथी घोड़ा ऊंट बहु, रथि सारथि असवार।
दोउ दिशि अगिनित जूझहीं, पैदल गने को पार॥70॥

चौपाई:-

सिंह समान कुंअर रण ठाना। गिरिवर लोग सकल अकुलाना॥
चारि पहर भैगो घमसाना। चकवा विछुरे भानु लंकाना॥
राति रहे सब अपने ठामहिं। दूनों दिशा कटक कसमासहिं॥
तेहि क्षण भानु अलोपित भयऊ। सावन मेघ उन्हें जन अयऊ॥

विश्राम:-

पर्वतवासी हुलसहीं, देखहिं प्रवल सहाय।
कहें चपरिधे मारबो, एक जियत ना जाय॥71॥

चौपाई:-

जूझे अवर बूझे जनि कोई। प्रकृति प्रताप लरत हैं दोई॥
प्रकृति करे परपंच घनेरा। प्रवल प्रताप मारि मुखफेरा॥
वहि पर्वत को महथ सुजाना। वुद्धि सेन तेहि नाम वखाना॥
कह महथा सुनु राजा वाता। केहि कारन सब सेन निपाता॥
पथिक नाम जाने सब कोई। तेहि मारे धौं का सिधि होई॥
मो केह आयसु करहु गोसाई। तेहि कंह विदा करहुं समुझाई॥
जो हमरे नहि जेहहि सोई। तबहिं करब जस बूझब सोई॥

विश्राम:-

आज्ञा दिहु राजा तब, चुल महथा उन पास।
अब जो इहां विलम्बही, निश्चय करे विनाश॥72॥