Last modified on 19 जुलाई 2016, at 10:10

योगी के पास चेरी / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:10, 19 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=प्रेम प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चौपाई:-

चेरी गई कुंअर के ठामू। नायसि शीश कियो परनामू॥
पंचामृत लै आगे धरेऊ। हाथ जोरि कर विनती करेऊ॥
विहसि सिद्ध कहको तुम नारी। भोजन भेद कहो निरुवारी॥
वोलत विहसि दशनध्युति चमकी। सब जाने जनु दामिनि दमकी॥
तेहि की किरन भई उजियारी। रूप निरखि नहिं चेरि संभारी॥

विश्राम:-

वदन रदन ध्युति देखते, जनु लागो उर वान।
हेरि हेरि भौ मुरछित, तनि न तनको ज्ञान॥152॥

चौपाई:-

कम्पत अंग न चीर संभारा। प्रवल प्रसेद भीग मुख सारा॥
ऊर्ध श्वास भौ अर्द्ध शरीरा। पियर वदन भौ तनकी पीरा॥
जान्यो कुंअर विकल गति। तजै देहु अनुचित वड होई॥
रूप वाण मन लाग्ये चेरी। तेहि ते उतनी भई अनेरी॥
मुख अंवर दै वोल्यो राऊ। तुव तन कम्पित कवन सुभाऊ॥

विश्राम:-

गवन करो कथ थार लै, सुनो हमारी वात।
लीनो भेजन मानिके, जानि संभारो जात॥153॥

चौपाई:-

जबहिं कुंअर युक्ती अस कीन्हा। कछुक संभारि चेरिकर लीन्हा॥
कुंअर मंत्र पढ़ि वदन परवारा। जनु सोवत जगे तेहि वारा॥
थहरत चली पंथ वर नारी। जंह मग जोहत राजदुलारी॥
पलटि न पाछ चितायउ वारा। जो पाछे जो काल प्रकारा॥
कुंअरि रही जंह पंथ चेताई। थार लिये तेहि ठाहर जाई॥
प्राणमती के आगे रोई। जो गति वाघ दरस ते होई॥

विश्राम:-

कुंअरि घरकि जो पूछेऊ, अति आतुर अकुलाय।
के तोकैह कलपायऊ, सो मोहि कहु समुझाय॥154॥

चौपाई:-

कह चेरी सुनु मोरी रानी। कहिन जात मोहि अकथ कहानी॥
का मै कियउं अन्याऊ। जो वहि ठाहर मोहि पठाऊ॥
दै भोजन मैं किहु मनुहारी। तेहि क्षण सिद्ध कला किहु भारी॥
मुखते जोति प्रगट वहराई। तेहि देखत तन ताँवरि आई॥
जीव अचंभित त्रासित भयऊ। तन की सुधि वुधि तेहि क्षण गयऊ॥

विश्राम:-

नखते शिख तन थाहरेउ, जस पीपर को पात।
अन्त अवस्था ताहि क्षण, सो कैसे कहि जात॥155॥

चौपाई:-

दंड चारि सुधि सकल गंवाई। करि उपाय पुनि सिद्ध जगाई॥
दे अंवर मुख जोति छपाई। पुनि हित वचन कहयो समुझाई॥
मोहि कहयो घर गवनहु नारी। करहु चेत तन ज्ञान संभारी॥
अति कृपालु हवै आयु दियऊ। जीव दान जनु मोकैह कियऊ॥
वंद परो जनु तनु निकलाई। कै जनु वाघ तियाग्यो गाई॥

विश्राम:-

भाग सहाय भई मनहुं, जौ रहु प्राण हमार॥
नातरु फेर न हो हत्यों, दर्शन राजकुमारि॥156॥