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मैना का यात्रा वर्णन / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

कह मैना सुनु राजकुमारा। जस कछु अहै तासु व्यवहारा।।
पहिले पर्वत गयउं उडाई। कुल कुटुम्ब सब भेटयों जाई।।
पूंछयो भेद कुँअरि कर जाई। तब उन पार समुद्र बताई।।
बड़े कष्टसों उतरयों पारा। सो मोहि कहत न आव कुमारा।।
तोहरी सुरति जहाज चढाई। श्रीकत्तरि पार पहुँचाई।।

विश्राम:-

पारस नगर सोहावनो, ध्यानदेव तंह भूप।।
प्राणमती तेहि कन्यका, रमा तुले ना रूप।।51।।

चौपाई:-

जा क्षण दर्शन देयों गोरी। मैनो जन्म कृतारथ मोरी।।
मानुष कोधों ताहि निहारे। मुनि मन देखि न देह संमारे।।
हांे पंखी धौंकेतिक माना। जो तेहिको करि सके बखाना।।
जस ऊपर शोभित सो नारी। अस दूसर नहि महि अवतारी।।
पुरविल पुण्य व बड़ तप होई। परसे प्राणमती तन सोई।।
अवर कहां लों बरनो ताही विधिना रचिकैह ताहि सराही।।

विश्राम:-

निरखि स्वरूप सुहागिनी, पुनि आयों लखरांव।।
बैठि सुफल एक वृक्षपर, निशा कियो विश्राम।।52।।

चौपाई:-

चारिपहर निशि सुखहिँ गँवाई। विधि को चरित जानि नहि जाई।।
प्रात होत तँहवा एक व्याधा। दे टट्टी चलि आयउ राधा।।
मोतन लासा लाय बझायसि। पुनि अपने मुख कही सुनायसि।।
मो सन मांग्यो राजदुलारी। अब लै देंव अपूरब सारी।।
मैना प्राणमती मन भावे। करि दया किछु द्रव्य दियावे।।
लेगो व्याधा कुंअरि के पासा। देखि कुंअरि मन भयउ हुलासा।।

विश्राम:-

व्याधा दीन अधीन ह्वै, विनती बहुत सुनाय।
कुँअरि देखि जब मोहि कंह, मनहुं कृपण धन पाय।।53।।

चौपाई:-

सुनहु कुँअर आगिल व्यवहारा। वेरी वड़ हित भयउ हमारा।
कनक पींजरा कुंअरि गढ़ाई। मणि माणिककी झालरि लाई।।
पाटंवर को कियो ओहारा। मोहि देखे विनु करु न अहारा।।
अह निशि मोहि पढावन लयऊ। तुमते अधिक प्रीति उन कियऊ।।
दिवस कतेको जब चलि गयऊ। एक निशा विधिना अस कियऊ।।

विश्राम:-

राजकुंअरि आं हम हते, तीसर अवर न पास।
प्रेम पुलक जब पायऊँ, वचन कियों परकास।।54।।

चौपाई:-

कह्यों कुंअरिसों विनती लाई। यौवन रतन अकारथ जाई।।
इहे समय योवनकर आहा। अब लागे काह न भयो विवाहा।।
तब उन कही मोहि सति भाऊ। तों लगि यज्ञ करो नहि काऊ।।
शिव गोरीसों जो वर पाओं। तासों मन वच रुचि उपजाओ।।
मन मनसाके अभ्योशीऊ। जो वर देहु करों निज पीऊ।।

विश्राम:-

कृपावंत गौरी शिव, मोहि पर करहिं पसाव।
तो लगि यज्ञ करो नहीं, योवन रहो कि जाव।।55।।

चौपाई:-

पुनि मैना सन गोष्ठि सुनाई। सो अति विस्तर कहि नसिराई।।
वचन विचारि कही मन मांही। सुनहु कुँअरि विनती मोहि पाहीं।।
देखहु समुझि मनहि मंह बाता। हम तुम पुरविल प्रेमको नाता।।
तोहि लागे प्राण संकल्प्यो आजू। मन वच क्रम चितवों तुव काजू।।
जो तुम नारि रची कर्त्तारा। ले आवो कवनिउ परकारा।।

विश्राम:-

बरिस दिवस को परिमित, वचन वंध तब कीन्ह।
तुव वर विधना जो रख्यो, सो ले आवों चीन्ह।।56।।

चौपाई:-

मो सन सुनहु कुंअर सति भाऊ। प्रभु मोहि लगो पुनि ले आऊ।।
यहिते जानिय आगिल वाता। तोहि वहि मेखे करब विधाता।।
हम तुव लागे अति साहस कीना। तुमरो प्रीति अन्तगति चीन्हा।।
जो तुव वहि कर परम सनेहू। मिलन होत कछु नहि सन्देहू।।
जो अब साहस होय तुम्हारा। अवश सिद्ध करिहे कर्त्तारा।।

विश्राम:-

हम तनमन संकल्पऊ, तुव लगि राजुकुमार।
अब समुझत जस आवे, तस तुम करहु विचार।।57।।