भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मनमोहन-विहार / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:56, 19 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=प्रेम प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई:-

वनु दलान ड्योढी दर्वारा। पुहुप वाटिका रंग अपारा॥
तहंवा कुंअरकेर सुखवासा। सुख मूरति चेरी चहुंपासा॥
सकल लोग नित करैं जोहारा। जो जेहि योग सो तेही प्रकारा॥
सभा मांझ सब वैठहि जोरी। सुखमा ताहि सुधर्मा थोरी॥
यूथ यूथ जंह गुनिजन आवहिं। धुनि सुनि मुनिवर गर्व गवावंहि॥
हरिन, भाल, मेढा, गज लरहीं। आपन आपन अवसर करहीं॥

विश्राम:-

राति दिवस नहि जानिये, दान रहे झरि लाय।
अष्ट धातु मणि वस्त्र जमत, लिखत न विधी सिराय॥193॥

चौपाई:-

नित अस्नान दान नित अर्चा। नित पुराण पद नित हरि चर्चा॥
नित हो सभा पान पकवाना। नित वन्दी जन पा वहिं दाना॥
नित कत गुनि जन परकासा। नितहिं भाल मृग करहिं तमासा॥
नितहिं कोलाहल नितहिं अखारा। जनु सांतुख सुरपति दर्वारा॥
नित पुनि सबहि सदाव्रत पाऊ। नितहिं करे जस भोजन भाऊ॥
नितहिं अनंद महा अधिकाई। नित नित होवे अधिक वधाई॥

विश्राम:-

नित याही विधि वीतेऊ, नित अन्तः पुर जाहि॥
नित्य धनी कौतूहलहिं, धरनी कहि न सिराहि॥194॥