भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पावस ऋतु / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:02, 20 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=प्रेम प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई:-

पावस अति व्याकुल भइ वला। देखि दशा उपजी मोहि ज्वाला॥
वहि भौ विष समान तनु नाता। विनु दूलह कित जात वाराता॥
निकरन चाह दरस अनुरागी। कुल कुटुम्व परिजन सब त्यागी॥
प्रभु दर्शन जौ पाव न नीका। तौ पुनि शोच कहा अव जीका॥
विनु प्रियतम जीवन केहि राजा।...
सखिन राशि कर गहि अरु झाई। धीरज धरहु छोडहु अतुराई॥

विश्राम:-

जो तुव पूर्व सनेहिया, सहज मिलन परकार।
जो विधि लिखो विछोहरा, तौका फिरि संसार॥203॥

अरिल:-

पावस को ऋतु जानि, सखी अकुलाइया।
जो विधि वूझे वाम, कंत नहि आइया॥
चह न किरन गृह छाडि, सखी अरु भाइया।
धरनी लिखित लिलार, सो कवन मिटाइया॥

कुंडलिया:-

आवत पावस कामिनी, नख शिख अंग विहाल।
चलि निकली निज हे गेहते, कुल कुटुम्ब तजि वाल॥
कुल कुटुम्ब तजि वाल, साल उर अन्तर सालै।
विनु काछी निज नाह, कवन गाछी घनि पालै॥
कबहिं रहति मुरछाइ, कबहिं उठि मंगल गावति।
ऐसहिं प्राण प्रयाण, न जो पिय पावस आवति॥

सवैया:-

पावस काल सो व्याकुल वाल, विहाल भई जनु...।
दादुर मोर करैं अति शोर, परो अति झींगुर को झनकारा॥
कन्त वियोगते क्षीण भई तन, बूंद को भार सहे नहिं पारा॥
देह दुरावति गेह निरंतर, कागद की पुतरी परकारा॥

सोरठा:-

पावस वरिसे मेह, सूखे तृण भौ हरियरे।
पंछी छावै गेह, आंक लिखो सोई भवो॥