Last modified on 20 जुलाई 2016, at 03:30

घायल / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:30, 20 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गुरु चलायो वाण कसि, चेलहिँ आई घाव।
सोवत जागी आत्मा, धरनी हरि-गुण गाव॥1॥

धरनी घायल जो भया, घर नहि ताहि सोहाय।
जहाँ तहाँ घूमत फिरै राम-राम गोहराय॥2॥

धरनी सांग सनेहकी, वूडी हृदया मांहि।
जो घायल सो जानि है, औरन को गम नांहि॥3॥

धरनी जाके घाव है, और न जाने भाव।
कै जाने जिय आपनो, कै जाने जिन लाव॥4॥

घाव कतहुँ नहि देखिये, नहीं रुधिर की धार।
धरनी हियमेंमें चुभि रहो, बिसरत नहीं बिसार॥5॥

धरनी घ्ज्ञायल है पडा, कल बल कछु न बसाय।
कब चलि ऐहें पारखी, लैंहें आपू उठाय॥6॥

धरनी घायल जो भया, करु ओ लागे मीठ।
डीठ ओरहीं पीठ है, पीठ ओरहीं डीठ॥7॥

धरनी घाव जिनै लगी, तिनै औषधी नाँहि।
रंगे चंगे नित होत है, मारन हारि मिलाहि॥8॥