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हिन्दू / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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जाति सबहि को एक है, करनी ते बहु नाम।
धरनी देखो धरनि में, फिर सब एकै ठाम॥1॥

सर्व जाति में साधु है, साधु माँह सब जाति।
राति मांह ज्यों दिवस है, दिन मँह रहती राति॥2॥

धरनी हिन्दू सो भला, हद बेहद को जान।
काया मँह तीरथ करै, दाया-धर्म प्रमान॥3॥

धरनी ब्राह्मण ते भले, ब्रह्म करैं याजमान।
सनमुख वैठँ निशि दिना, वाँचे प्रेम पुरान॥4॥

धरनी क्षत्रिय ते भले, चढ़ै राम-रब मांहिं।
पटग पटग आगे चलहिँ, पाछे चितवन नाहिं॥5॥

धरनी वनिया ते भले, वनिजैं, रामको नाम।
फेरि 2 तोलत रहैं, पल पल आठो याम॥6॥

धरनी कायथ ते भले, किल्विष रहै न कोय।
ऐसो लेखा करि चलैं, वहुरि न लेखा होय॥7॥

धरनी काछी ते भले, कया कियारी लेयँ।
तरकारी करि पाँच फल, राम दुआरे देयँ॥8॥

धरनी कुर्मी ते भले, खेती भक्ति कमाय।
एक बार की उपजहीं, दुख दारिद्रय नशाय॥9॥

धरनी ग्वाला ते भले, ठाकुर को ठटिवार।
गऊ चरावैं आत्मा, तृण माया संसार॥10॥

धरनी मंडरिया ते भले, गाडर बाढ़ि विवेक।
ऊन उतारैं सन में, रचैं कामरी एक॥11॥

धरनी सुनारा ते भले, हरीनाम भौ हेम।
गहना शब्द सुधारिया, पहिरै जातन प्रेम॥12॥

धरनी गांधी ते भले शब्द सुगंध वसाय।
अष्ट गंध को अर्गजा, दौरें केशव राय॥13॥

धरनी तमोली ते भले, पान पचीसी जोरि।
तत्त्व तारसाँ काँधिके, त्रिगुण मसाला तोरि॥14॥

धरनी माली ते भले, प्रेम पुहुप को हार।
तन डाली भर तोरि के, पहुँचावों प्रभुद्वार॥15॥

धरनी भाँट हैं ते भले, रहैं ब्रह्म ब्रह्माय।
महाराज राजी करैं, विविध कवित्व बनाय॥16॥

धरनी कत्थक ते भले, प्रेम कथा परकास।
चित चिन्ता व्यापै नहीं, सन्तत हृदय हुलास॥17॥

धरनी तेली ते भले, तन कोल्हू मन बैल।
सत्य सुकृत सरसो करै, तत्त्व निकारैं तेल॥18॥

धरनि कलाला ते भले, भट्टी कया चढ़ाय।
समता अमल चुवाइ लँ, मितई ईंधन लाय॥19॥

धरनी कांदूते भले, भूजैं कर्म केराव।
बोये बहुरि न ऊपजै, करै जो कोटि उपाव॥20॥

धरनि कुँमारते भले, मन माटी चित चाक।
वासन वुद्धि बिमल करैं, ब्रह्म अग्नि के पाक॥21॥

धरनि लुहाराते भले, हृदय धरैं निहाय।
भवका भींडा तोरिके, वंकी गढ़ै बनाय॥22॥

धरनी बढ़ई ते भले, कर्म काठ लें फारि।
यम-जाड़ा व्यापै नहीं, ज्ञान-अग्नि पर जारि॥23॥

धरनी दरजी ते भले, सुरति सुई मन ताग।
सदा सहज धरि सीयना, अभि-अन्तर अनुराग॥24॥

धरनी पटवाते भले, पाट सुधारी प्रीति।
पला पकरि कोइ ना सके, चलें जगत के जीति॥25॥

धरनी रंगी ते भले, तन मन रंगे लाल।
निरखें लाली लाकी, छोड़ि लोक जंजाल॥26॥

धरनी डोलिहा ते भले, तन डोली मन बाँस।
रहैं चढ़ाये तत्त्व को, छः ऋतु बारह मास॥27॥

धरनी नाऊ ते भले, ज्ञान छुरा ले हाथ।
ज्ञानी पारस लाय के, मनको मूँडैं माथ॥28॥

धरनी धोबी ते भले, सतको साबुन लाय।
ऐसो सटूक सुधारि लँ, वहुरि न धोबो जाय॥29॥

धरनी वाही ते भले, प्रीति पातरी लाय।
जाइ पहूँचें कन्त-घर, सन्तन जूठन खाय॥30॥

धरनी धीमर ते भले, तन सरवर मन जाल।
तत्त्व तुमरी ज्ञान गुन, घेरि बझावै काल॥31॥

धरनी मैना ते भले, निशि दिन करँ पुकार।
सोवत जागी आत्मा, परै न यमकी धार॥32॥

धरनी मोची ते भले, निर्मल चितको चाम।
करैं प्रानकी पानही, नहि छोड़ैं विश्राम॥33॥

धरनी सूपच ते भले, लिये सहज को सूप।
पन्थ पुकारत ही चलैं, हरि-मन्दिर हाँइ चूप॥34॥