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गुरु ज्ञान / शब्द प्रकाश / धरनीदास
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कियो षट्कर्म नहि दया हिय धर्म, तन तजो नहि मर्म किमि कर्म छूटै।
दियो वहुदान करि विविध वीधान मत बढ़ो अभिमान यमप्राण लूटै॥
यज्ञ अरु येाग तप तीर्थ व्रत नेम करि, बिना प्रभु-प्रेम कलिकाल कूटै।
दास धरनी कहै कौन विधि निर्वहै, जौन गुरु-ज्ञान किमि गगन फूटै॥2॥