Last modified on 21 जुलाई 2016, at 23:19

श्री राग / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:19, 21 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

81.

मातु मातु मद मातु मना॥टेक॥
जो मद पियत महेश्वर माते, अरु माते सब सन्त जना॥
रहत निरंतर अंतर्यामी, त्रिगुन रहित राजत गगना।
रवि शशि अग्नि पवन जल थल नहि, नहि निशिदिन सोतुख सपना॥
इंगल पिंगल पंथ परखिके, चढु सुख मारग सूषमना।
घाट त्रिबेनी वांट उनुमुनी, सहज मगन रहु शून्य मना॥
परम तत्त्व परमादि परम गुरु, युग अबरन अधरन धरना।
धरनी सोइ अनुभव पद पैहै, जाहि अहरदिन हरि रटना॥1॥

82.

जो जन जानि भजो हरि-चरना।टेक।
ताकी प्रेम प्रतीति रीति नित, होत अटल व्रत नहि टरना॥
मोह मया को बंधन तोरै, लोक कर्म भ्रम भय हरना।
वेद शास्त्र मत मनहु न आवै, भौ निरभव डरिगो डरना॥
ज्ञान भवो गलतान ताहि को, पाँचहु के रस परिहरना।
पाप पुन्य रज तम तँह बिनसो, विसरि गयो जीवन मरना॥
धरनी सो सिधि ऋधि नहिँ सोचे, लै करमाति कहा करना।
मोक्ष मुक्ति वैकुंठ अमर पद, तन तरुवर लागो फरना॥2॥