Last modified on 21 जुलाई 2016, at 23:20

काँधरा / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 21 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

92.

अब तो जानि परी प्रभु तेरी।टेक।
सो सुनि सोरह घडी तासु उर, प्रगट पुकार करेगी॥
जाल जंजाल चहूदिसि घेर, तापर काल अहेरी।
कियो न तीरथ साधु कौ दर्शन, अति अलसाय रहेरी॥
यज्ञ योग तप पाठ न पूजा, वरत कथा न कहेरी।
जन्म सिरानि विरानिहि सेवा, रामनाम नहि टेरी॥
छोड़ि वेद विधि अविधि सबै किय, औघट घाट वहेरी।
धरनीदास परम सुख पाओ, जब प्रभु कर पकरोरी॥1॥

93.

या मन उलटी चाल लचावै।टेक।
अति वरिवंड वरै नहि कैसहुँ वेद लोक समुझावै॥
जा मग कुल परिवार विराजै, सेा मारग नहि भावै।
जा मग लोक चले चित हर्षित, ता मधि कृपा खनावै॥
तिरबेनी एक संगहि संगम, बिनु जल ताँह न हावै।
जा मग जोति सकाति पवन गति, ता मारग धुपि धावै॥
देह सरोवर उरध कमल दल, तँह विश्राम सोहावै।
धरनी गुरु समानो अति अद्भुत, वचन वखानि न आवै॥2॥