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केदार / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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94.

मैं अपराध कियो बहुतेरो।टेक।
कँह लगि कहाँ कहत नहि आवै, जानत हो गुन अवगुन मेरो॥
गर्भ-वास दस मास अधो मुख, जननि सहयो तँह दुःख घनेरो।
बाल कुमार करम बहु लागे, निर्दाया मन कठिन कठोरो॥
जो सुत दियो न कियो तिरथ व्रत, सुमिरयो नहि तप ठाट-ठटेरो।
युवा समय विषया-रस माते, पाँचहु के वश फिरत अनेरो॥
अधम-अधारन वैन सुनो प्रभु, सकल साधु गम निगम कहेरो।
धरनीदास त्रास अति त्रासित, त्राहि त्राहि करि शन गहेरो॥1॥

95.

अजहुँ न राम चरन चित दैहो।टेक।
नाना योनि भटकि भ्रमि आये, अब कब प्रेम-तिरथिहिँ नैहैहो।
बड़ कुल विभव भरम जनि भूलो, प्रभु पैहो जब दास कहैहो॥
यह संगीत दिन दसाँकि दसा है, कवि कथि पढ़ि पढ़ि पार न पैहो।
कर्म भार शिरते नहि उतरै, खंड खंड महिमंडल धैहो॥
बिनु सत गुरु सत लोक न सुझै, जनमि जनमि महि मरि पछितैहो।
धरनी सो सब तवहीं साँचो, हरिको नाम हृदय ठहरैहो॥2॥

96.

अजहुँ मिलो मेरो प्राना पियारे।टेक।
दीन दयाल कृपाल कृपानिधि, करहु सभा अपराध हमारे॥
कल न परत अति विकल सकल तन, नयन सजल जनु वहत पनारे।
माँस पेशि अरु रक्त रहित भे, हाड़ दिनहु दिन होत उधारे॥
नासा नयन श्रवन रसना रस, इन्द्रिय स्वाद जुवा जनि हारे।
दिवस दसो दिसि पंथ निहारत, राति विहाति गनत जत तारे॥
जो दुख सहत न कहत बनत मुख, अंतर गति के जानिनिहारे॥
धरनी जिय झलमलित दीप ज्योँ, होत अंधार करो उँजियारे॥3॥