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विहाग / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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97.

अरे मन सुमिरो कर्त्ताराम।टेक।
जाके सुमिरत टरै सब अघ, सकल पूरन काम॥
जाहि ब्रह्मा आदि सुर मुनि, जपत आठो याम।
चरन चितवनि गौरि सरस्वति कोटि कमला वाम॥
जाहि धु्रव प्रह्लाद सुमिरे, तजे सब सुख धाम।
जाहि सुमिरत पतित गनिका, चढ़ी प्रगट विमान सुधाम॥
शंभु भाषी वेद साखी, संत जन विश्राम।
दास धरनी जोरि कर, कर बार बार प्रनाम॥

98.

जगमेँ सोइ जीवन जिया।टेक।
जाकै उर अनुराग उपजो, प्रेम प्याला पिया॥
कमल उलटो भरम छूटो, जाप अजपा किया।
जनु अँधारे भवन भीतर, वारि राखी दिया॥
काम क्रोध सुविधिया, जिन घरहिमेँ घर किया।
मया के परपंच जेते, सकल जानो छिया॥
वहुत दिनको बहुत अरुझो, सहज ही सुरझिया।
दास धरनी तासु वलि वलि, भूँजिया जिन बिया॥2॥