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पंजर / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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120.

तुहि अवलंब हमारे।टेक।
भावे पग नागे करो, भावे तुरय सवारे॥
वहु जन्म वादै गओ, निज नाम बिसारे।
अब शरनागति रावरी, जन कतक पुकारे॥
भव सागर वेरा परो, जल माँझ मँझारे।
संतत दीन दयाल हो, करु पार किनारे॥
धरनी मन वच कर्मना, तन मन घनवारे।
अपनो विरुदविचारिये, नहि बनत विचारे॥1॥

121.

समुझ नर अंध अभागा।टेक।
राम-भक्ति बिसरायके, कित प्रेतन लागा।
साचारन ठाड़ा रहे, झूठा उठि भागा।
संत नगारो बाजही, अबहूँ नहि जागा॥
जीव दया जिय में धरो, जस बाभन तागा।
गाय हते हत्या भई, कंुहु भइसि के नागा॥
सनमुख शरन समाइये, परि हरि के दागा।
धरनी गुरु गोविंद भजै, तेहि काज को खागा॥2॥

122.

भैया जेहि राम नेवाजा।टेक।
सात द्वीप नव खंडमेँ, ता दुंदुभि बाजा।
परम तत्त्व हृदया बसै, संतन छल गाजा॥
रहत सदा आनंद मेँ, शिर प्रदम विराजा।
काल सरुपी कोइ नहीं, सब आरति साजा।
पाँच जनेकी मूढ़ता, उठि आपहि भाजा।
चारि पदारथ नहि चहै सुख सहज समाजा॥
धरनी जीवन मुक्त सो, अतुलित छवि छाजा॥3॥

123.

प्रभु तोँ बिन को रखवारा।टेक।
होँ अति दीन अधीन अकर्मी, बाउर बैल बेचारा।
तू दयाल चारोँ युग निश्चल, कोटिन बधम उधारा॥
अबके अयश और न लीजै, सर्वस तोहि बड़ाई।
कुल मर्यादा लोक लज्जा तजि, गहो चरन शरनाई॥
मैं तन मन धन तोपै वारोँ, मूरख जानत वाला।
वाउर वेद न बाभन बूझै, बिनु दागे नहि छाला॥
तूलसी भूषन भेष बनाओ, श्रवन सुनो मर्यादा।
धरनी चरन शरन सच पाओ, छुटिहै वाद-विवादा॥4॥

124.

प्रभु तू मेरो प्रान-पियारा।टेक।
परिहरि तोहि अवर जो जाँचे, तो मुख छीया छारा।
तोँपै वारि सकल जग डारो, जो वश होय हमारा॥
हिन्दूहिँ राम अलाह तुरुक के, बहु विधि करत बखाना।
दुहुको संगमन एक जहाँ तहँवाँ मेरो मन माना॥
रहत निरंतर अंतर्यामी, सब घट सहज समाया।
योगी पंडित दानि दसों दिशि, खोजत अंत न पाया॥
भीतर भवन भवो उँजियारो, धरनी निरखि सोहाया।
जा तिन देश देशांतर धाओँ, सो घटही लखिपाया॥5॥

125.

मोसो नहि दुखित प्रभु तोसोँ सुखदाई।टेक।
दीन बंधु तेरे बिनु आनको सजोई। मोसो नहिपतित अवर देखो जग टोई॥
मोसोँ नहि दीन और निरखो नरलोई। पतित पावन निगम कहत, रहत कित गोई॥
अधमम को उधारन तुम चारोँ युग होई। मोते अब अधम आहि कौन धोँ बड़ोई॥
धरनी मन मनिया एकतागमेँ पिरोई। अपनो करि जानि लीजे-कर्म-फंद छोई॥6॥

126.

मन रे नर देह पाय रामहि जपु भाई।
जानत जग जीव वहु संतत संताई। कलि काल मारि है धरि मनिनकी हाई॥
जीव मारि मारि जीभ-स्वाद जो बढ़ाई। वेद संत मंत छोड़ि कौनकी भलाई॥
अजहुँ साधु संगति धरु जोरि करु अथाई। काल साल सालत नहि रामकी दोहाई॥
धरनी मन मगन गगन एकै एकाई। बार-बार, बार-बार, वारि-वारि जाई॥7॥